Sarala Gita In Sanskrit

॥ Sarala Geetaa (Gujarati) Sanskrit Lyrics ॥

॥ सरल गीता (गुजराती) ॥

सरल गीता (गुजराती)


सरल गीता (गुजराती)
श्री योगेश्वरजी
प्रकाशक:
सर्वमंगल चेरीटेबल ट्रस्ट
सकल एपार्टमेंट्स एक्स-३/४
नारणपुरा, अमदावाद-१३
१९९० आवृत्ति

A Note by the transliterator Suresh Vyas: At some places in this Gujarati Gita Suresh Vyas have made a few changes । Suresh Vyas have swapped or changed the words to make it more singable or to give correct meaning of the verse as given by Bhaktivedanta Swami Prabhupada । The original verse lines are shown in ( ) next to changed lines । If you like this, use it every day, and tell to others about it । Jai Sri Krishna!

गीतानुं माहात्म्य
पृथ्वी कहे छे:
प्रारब्ध तणो भोग जे जगमां जन करता, भक्ति उत्तम ते कहो केम करी लभता? ॥ १ ॥

विष्णु भगवान कहे छे:
प्रारब्ध भले भोगवे, गीतारत पण जे, सुखी मुक्त ते थायछे, लेपाये ना ते. ॥ २ ॥

गीता ध्यान कर्या थकी पाप कदी न अडे, पद्म जेम जलमां छतां जल एने न अडे. ॥ ३ ॥

गीता ज्यां ने पाठ ज्यां गीताजीनो थाय, प्रयाग जेवा तीर्थ त्यां सर्वे भेगा थाय. ॥ ४ ॥

गीता-आश्रय हुं रहुं, गीता घर मारुं, गीताज्ञान थकी ज हुं त्रिलोकने पाळुं. ॥ ५ ॥

कर्म करे कोई छतां, जो गीता-अमल करे, जीवन मुक्त ते थाय ने सर्व प्रकार तरे. ॥ ६ ॥

(कर्म करे कोई छतां, गीता-अमल करे, जीवन मुक्त ते थाय ने सर्व प्रकार तरे. ॥ ६ ॥)
गीताछे त्यां अन्य कोई शास्त्रोनुं शुं काम, प्रभुना मुखथी प्रगट छे गीता दिव्य तमाम. ॥ ७ ॥

(गीताछे त्यां अन्य छे शास्त्रोनुं शुं काम, प्रभुना मुखथी प्रगट छे गीता दिव्य तमाम. ॥ ७ ॥)
भवसागर छे घोर आ, तरवा मागे जे, गीतारूपी नावनुं शरण लई ले ते. ॥ ८ ॥

पवित्र गीता-ग्रंथ आ, प्रेमे जे पढशे, प्रभुने पामी शोक ने भयथी ते छूटशे. ॥ ९ ॥

गीता प्रेमे जे पढे, प्राणायम करे, पूर्वजन्म आ जन्मनां तेनां पाप टळे। ॥ १० ॥

स्नान कर्याथी जायछे मेल देहनो जेम, गीता स्नाने जायछे मायानो मल तेम. ॥ ११ ॥

प्रभुमुखमांथी नीकळी गीता जे वांचे, अन्य शास्त्रने ते भले वांचे ना वांचे. ॥ १२ ॥

गंगाजल पीधा थकी अमृतस्वाद मळे, गीतानी गंगा थकी बीजो जन्म टळे. ॥ १३ ॥

उपनिषदनी गायने गोपाले दोही, अर्जुन वाछरडो, रह्युं गीता दूध सोही. ॥ १४ ॥

गीता एक ज शास्त्र छे, कृष्ण एक ज देव, मंत्र तेमनुं नाम ने कर्म तेमनी सेव. ॥ १५ ॥

ध्यान
प्रभुए पोते प्रेमथी कही निज सखाने, व्यास महर्षिए करी जेनी रचनाने; ॥ १ ॥

अढार ते अध्यायनी, अमृतथी ज भरी, भवतारक गीता, तने याद रह्यो छुं करी. ॥ २ ॥

कमलसमी सोही रही आंख जेमनी ते, व्यास महर्षि, हुं नमुं आज खूब प्रीते; ॥ ३ ॥

तेल महाभारत तणुं भरी जलाव्यो छे, ज्ञान दीवडो आ तमे दिव्य जगाव्यो छे. ॥ ४ ॥

शरणे आवे तेमने पारिजात जेवा, ज्ञानी कृष्ण, नमन हजो गीता गानारा! ॥ ५ ॥

वासुदेव, चाणुर ने कंस तणा हणनार, जगद्गुरु, तमने नमुं, कृष्ण, शांति धरनार! ॥ ६ ॥

मूंगा बोले, पंगुये चढे पर्वते तेम, जेनी कृपा थतां; नमुं कृष्ण, करी दो रे॑म. ॥ ७ ॥

ब्रह्मा, ईंद्र, वरुण ने देव स्मरे जेने, दिव्यगानथी गाय छे वेद महीं जेनेः ॥ ८ ॥

ध्यान धरी हैये जुए योगी जन जेने; जेने देव न जाणता, देव नमुं तेने. ॥ ९ ॥

–xxx–
सरल गीता

अध्याय १: अर्जुनविषादयोग
(दोहरा)
धृतराष्ट्र कहे छे:
कुरुक्शेत्रना तीर्थमां मळिया लडवा काज, कौरव पांडव तेमणे कर्युं शुं कहो आज. ॥ १ ॥

संजय कहे छे:
जोई पांडवसैन्यने राजा दुर्योधन, द्रोण गुरु पासे जई बोल्यो एम वचन. ॥ २ ॥

गुरुदेव, सेनाजुओ पांडवनी भारी, द्रुपदपुत्र तम शिष्यथी सज्ज थई सारी. ॥ ३ ॥

अर्जुन भीमसमा घणा योद्धा छे शूरवीर, महारथी युयुधान छे द्रुपद विराट अधीर. ॥ ४ ॥

पुरुजित कुंतीभोज छे शैल्य श्रेष्ठ गुणवान, धृष्टकेतु ने चेकितान काशीराज बलवान. ॥ ५ ॥

युधामन्यु विक्रान्त ने अभिमन्यु रणवीर, उत्तमौज द्रौपदी-तनय सौ महारथी वीर. ॥ ६ ॥

हवे आपणा सैन्यना कहुं श्रेष्ठ जनने, द्विजश्रेष्ठ हे, सांभळो संक्शेप महीं ते. ॥ ७ ॥

तमे, भीष्म ने कर्ण छे सेनापति कृप छे, अश्वत्थामा विकर्ण नेसौमदत्ति पण छे. ॥ ८ ॥

बीजाए बहु वीर छे विविध शस्त्रवाळा, युद्धनिपुण जीवन मने अर्पण करनारा. ॥ ९ ॥

विराट सेना आपणी रक्शा भीष्म करे, पांडवसेना स्वल्प छे, रक्शा भीम करे. ॥ १० ॥

बधी तरफथी भीष्मनी रक्शा सर्व करो, निज स्थाने ऊभा रही रक्शा सर्व करो. ॥ ११ ॥

कुरुमां वृद्ध पितामहे शंख वगाड्यो त्यां, सिंहनादथी सैन्यमां हर्ष छवायो हा! ॥ १२ ॥

पणव शंख आनक अने भेरी गोमुख त्यां, सहसा वाग्यां ने थयो घोर शब्द रणमां. ॥ १३ ॥

सफेद घोडे शोभता मोटा रथवाळा, कृष्णे अर्जुने शंखने दिव्य वगाड्या त्यां. ॥ १४ ॥

पांचजन्य कृष्णे अने देवदत्त अर्जुन, पौंड्र वगाड्यो शंखने भीमे लावी धून. ॥ १५ ॥

कुंतीपुत्र युधिष्ठिरे अनंत विजय वळी, शंख वगाड्यो, शो रह्यो शब्द बधेय फरी. ॥ १६ ॥

सुघोश मणिपुष्पक ध्वनि नकुल अने सहदेव, तेम ध्वनि कैये कर्या शंखतणा स्वयमेव. ॥ १७ ॥

काशीराज विराट ने द्रुपद द्रौपदी बाल, धृष्टद्युम्न अभिमन्युए धर्या ध्वनिथी ताल. ॥ १८ ॥

खळभळावता आभ ने धरतीने स्वर ए, जाणे उर कौरव तणा चीरी पृथक् करे. ॥ १९ ॥

कौरवनी लडवा उभी सेनाने जोई, धनुष उठावीने रह्यो अर्जुन त्यां बोली. ॥ २० ॥

ॠषिकेश अच्युत हे, रथ मारो राखो, बन्ने सेना मध्यमां रथ मारो राखो. ॥ २१ ॥

लडवा उभा सर्वने लउं जरा जोई, लडवा लायक कोण छे लउं जरा जोई. ॥ २२ ॥

दुर्योधन-हित चाहता लडवा काज मळ्या, कोण कोण रणमां मळ्या जोउं आज जरा. ॥ २३ ॥

संजय कहे छे:
अर्जुनना वचनो सुणी श्रीकृष्णे जलदी, बन्ने सेना मध्यमां रथ राख्यो पकडी. ॥ २४ ॥

भीष्म द्रोण जेवा घणा राजा जेमा छे, जो कौरव सेना उभी पार्थ, बराबर ते. ॥ २५ ॥

पिता पितामह ने गुरु मामा ने भाई, पुत्र पौत्र मित्रो वळी स्नेही हितकारी. ॥ २६ ॥

एवा जोई स्वजनने करूणता धारी, बोल्यो अर्जुन शोकथी खिन्न थई वाणी. ॥ २७ ॥

ससरा तेमज स्वजनने रणमांही जोई, द्रवे नहीं एवो हशे कठोर जन कोई! ॥ २८ ॥

अंग शिथिल मारुं थतुं, वदन सुकाई जाय, शरीर कंपे, शोकथी रोमांच मने थाय. ॥ २९ ॥

धनुष हाथथी सरकतुं, दाह त्वचामां थाय, चित्त भमे, मारा थकी नाज उभा रहेवाय. ॥ ३० ॥

लक्श्ण देखाये मने अमंगल बधां ये, स्वजनोने मार्ये नहीं मंगल कैं थाये. ॥ ३१ ॥

विजय राज्य सुख ना चहुं, कृष्ण खरेखर हुं, राज्य भोग जीवन मळे अनन्त तोये शुं! ॥ ३२ ॥

जेने माटे राज्य ने वैभव सुख चहिये, प्राण तजी रणमां उभा सुखने छोडी ते. ॥ ३३ ॥

पितृ तेम आचर्य ने पुत्र पितामह आ, ससरा मामा पौत्र ने संबंधी सघळा. ॥ ३४ ॥

त्रिलोक काजे ते हणे, हणुं न तोये हुं, पृथ्वी माटे तो पछी हणुं तेमने शुं? ॥ ३५ ॥

कौरवने मार्या थकी मंगल शुं मळशे? आततायीने मारतां अमने पाप थशे. ॥ ३६ ॥

बंधुजनोने मारवा छाजे ना अमने, स्वजनोने मार्ये मळे मंगल शुं अमने! ॥ ३७ ॥

लोभ थकी नासी गई बुद्धि कौरवनी, मित्र द्रोह कुलनाशनुं देखे पाप नहीं. ॥ ३८ ॥

परंतु कुलना नाशनो दोश दूर करवा, अमे चहीए केम ना जाण छतां तरवा. ॥ ३९ ॥

कुलना नाशे थायछे कुलधर्मोनो नाश, धर्म जतां कुल क्यां रह्युं, अधर्म व्यापे खाश. । ४०।
कुलनी स्त्रीमां आवतो अधर्मथी तो दोश, संकर संतानो तेथी थये दोश. ॥ ४१ ॥

(कुलनी स्त्रीमां आवतो अधर्मथी तो दोश, संकर संतानो तेथी थये कोश. ॥ ४१ ॥)
संकर संतानो थकी कुल तो नरके जाय, श्राद्ध थाय ना पितृनुं पतन तेमनुं थाय. ॥ ४२ ॥

कुलिन संकर लोकना दोषोथी नासे, जातिकुलतणा धर्म ने दुःख सदा वासे. ॥ ४३ ॥

धर्मभ्रष्टनो नरकमां सदा थायछे वास, एम सांभळ्युं छे अमे उत्तम जनथी खास. ॥ ४४ ॥

मळ्या राज्याना लोभथी स्वजनोने हणवा, पाप कर्म ते तो खरे मळ्या अमे करवा. ॥ ४५ ॥

तेथी तो छे श्रेष्ठ के करुं सामनो ना, शस्त्र विनानो छो हणे मुजने कौरव आअ. ॥ ४६ ॥

एम कही बेसी गयो रथमां पर्थ प्रवीण, धनुष बाण मूकी दई थई शोकमां लीन. ॥ ४७ ॥

अध्याय २: सांख्ययोग
संजय कहे छे:
आअंसु आंखोमां ने वळी हृदयमां लई शोक, बेसि गयो अर्जुन त्यां कही युद्धने फोक.
(आअंसु आंखमां ने वळी हृदयमां लई शोक, उभो रह्यो अर्जुन त्यां कही युद्धने फोक. )
कृष्णे ए अर्जुनने दीधी शीख अपार, शीखामण ते छे खरे गीताजीनो सार. ॥ १ ॥

अरे युद्धमां आ तने थयो केम छे शोक, मान कीर्ती ना आपतां नींदशे तने लोक. ॥ २ ॥

कायरताने छोड ने ऊभो था लडवा, तने छाजतुं आ नथी ऊभो था लडवा. ॥ ३ ॥

अर्जुन कहे छे:
केम करीने कृष्ण आ युद्ध महीं लडवुं, कहो भीष्म ने द्रोणनी साथे शें लडवुं? ॥ ४ ॥

पूजनीय छे ए बधा, वेर केम करवुं, एथी तो उत्तम खरे भिक्क्षु बनी मरवुं. ॥ ५ ॥

लोहीभीना हाथथी राज्य भोगवुं आ, ए इच्छा मारी नथी, सत्य कहुं छुं हा! ॥ ६ ॥

कोनो विजय थशे अमे जाणीए ना ते, जेना विना मरण भलुं लडवा ऊभा ते. ॥ ७ ॥

मारुं मन मूंझायलुं करी शके ना विवेक, शिक्शा दो साची मने, तूटे न मारी टेक. ॥ ८ ॥

(मारुं मन मूंझायलुं करी शके ना विवेक, शिक्शा दो साची मने, तूटे न मारो टेक. ॥ ८ ॥)
शरणे आव्यो आज हुं, उत्तम शिक्षा दो; लडवानी इच्छा नथी, भले गमे ते हो. ॥ ९ ॥

स्वर्गतणुं ये राज्य जो पृथ्वी साथ मळे, दिल हणनारो शोक ना मारो तोय टळे. ॥ १० ॥

संजय कहे छे:
एम कही कृष्णने महावीर अर्जुन, नहीं लडुं एवुं कही ऊभो धारी मौन. ॥ ॥

कृष्णे अर्जुनने कह्युं करतां स्मित जरी, साचे मिथ्या वातनो शोक रह्यो तुं करी. ॥ १० ॥

श्री भगवान कहे छे:
पंडितना जेवुं वदे ने वळी शोक करे, पंडित जीवन मरणनो शोक कदी न करे. ॥ ॥

(पंडितना जेवुं वदे परंतु शोक करे, पंडित जीवन मरणनो शोक कदी न करे. ॥ ॥)
हुं ने तुं आ राजवी हता पहेलां ना, भविष्यमां पण ना हशे एम मानतो ना. ॥ ॥

बाल जुवान बने बधां थाय वृद्ध पण तेम, मरवुं सौने छे खरे, दुःखी थवुं तो केम! ॥ ॥

टाढ ताप सुख-दुःखने देनारा विषयो, चलायमान अनित्य छे, ते सहु भारत ओ! ॥ ॥

विषय तेम सुखदुःखथी व्यथा न जेने थाय, धीर पुरुष ते छेवटे अमृतपदमां न्हाय. ॥ १५ ॥

असत्य अमर कदी नथी, नथी सत्यनो नाश, तत्ववान एवी धरे शीक्षा तेनी खास. ॥ ॥

जे व्यापक सर्वत्र छे ते अविनाशी जाण, अविनाशीनो नाश ना थाय कदी ते मान. ॥ ॥

आत्मानो ना नाश छे, थाय देहनो नाश, एम समज तो ना रहे शोकतणो अवकाश. ॥ ॥

हणेल के हणनार जे आत्माने माने, आत्मा ना मारे मरे, ते जन ना जाणे. ॥ ॥

आत्मा ना जन्मे मरे, हणे नहीं न हणाय, नित्य सनातन छे कह्यो, अनादि तेम सदाय. ॥ ॥

अविनाशी अज नित्य जे आत्माने जाणे, ते कोने मारी शके मरायलां माने? ॥ २१ ॥

जूना वस्त्र तजी धरे नवीन वश्त्रो लोक, आत्मा धरे देह तेम नवो ना कर शोक. ॥ ॥

(जूना वस्त्र तजी धरे नवीन वश्त्रो लोक, तेम देह धारे ननो आत्मा, ना कर शोक. ॥ ॥)
शस्त्रोथी छेदाय ना, अग्निथी न बळे, सूकाये ना वायुथी, जलथी ना पलळे. ॥ ॥

ना छेदाये ना बळे ना भींजाय न सुकाय, सर्वव्यापक नित्य छे, आत्मा रहे सदाय. ॥ २४ ॥

अविकारी अव्यक्त ने अचिन्त्य छे ते तो, एवुं जाणी ना घटे शोक कदी करवो. ॥ २५ ॥

जन्म मरण आत्मातणां अथवा तो तुं मान, तो पण करवो शोकना घटे तने ते जाण. ॥ ॥

जन्मे ते मरतुं सदा, मरेल जन्मे तेम, तेवो जगतनो नियम छे, शोक थाय तो केम? // ॥

व्यक्त मध्यमां थाय छे, आदि अंत अव्यक्त, जीव बधा; शाने पछी थाय शोकमां रक्त? ॥ ॥

अचरज पामीने जुए कोई आत्माने, अचरजथी बोले सुणे कोई आत्माने; ॥ ॥

श्रोता वक्ता सर्व ते हजारमांथी को॑क, जाणी शकता आत्मने करोडमांथी को॑क. ॥ २९ ॥

शरीरमां आत्मा रह्यो ते न कदी मराय, तेथी कोई जीवनो शोक करी न शकाय. ॥ ३० ॥

तारो धर्म विचार तो, शोक दूर आ थाय, धर्मयुद्धने काज छे क्षत्रियोनी काय. ॥ ॥

स्वर्ग द्वार छे युद्ध आ अनायास आव्युं; सुखी होय क्षत्रिय ते युद्ध लभे आवुं. ॥ ॥

करीश ना तुं युद्ध तो धर्म खरे चुकशे, कलंक कायरतातणु लोकोये मुकशे. ॥ ॥

अपयश करतां मोत छे खरे कह्युं सारुं, अपयशमां जीव्ये नहीं भलुं थाय तारुं. ॥ ॥

भयथी तुं नासी गयो, एम कहेशे वीर, कैं कैं लोक चलावशे वचनोना पण तीर. ॥ ३६ ॥

मान तेने जे आपता तुच्छज गणशे ते, निंदा करशे शक्तिनी, दुःख खरेखर ए. ॥ ॥

मरशे तो तुं पामशे स्वर्गतणो आनंद, राज्य पामशे जीततां, लड तो तुं सानंद. ॥ ॥

लाभहानि सुखदुःख हो, जीत मळे के हार, सरखां तेने मान ने लडवा था तैयार. ॥ ॥

कर्तव्य गणी युद्ध आ खरे लडी ले तुं, पाप तने ना लागशे, सत्य कहुं छुं हुं. ॥ ॥

ज्ञान कह्युं आ तो, हवे दउं योग उपदेश, ती जाणी तोडशे कर्मबंध ने क्लेश. ॥ ॥

जन्मांतरमां नाश ना योगबुद्धिनो थाय, स्वल्प धर्म-आचारथी भयने पार कराय. ॥ ४० ॥

योगवृत्ति तो होय छे एक लक्ष वाळी, योगहीन बुद्दि गणां होय ध्येयवाळी. ॥ ॥

वेदवादमां रत थया कामी चंचळ लोक, जन्म मरण फल आपतां कर्म करेछे को॑क. । ॥

स्वर्ग चाहता ते सदा मधुर वदे छे वाण, भोग वासनाथी गणे उत्तम कैं ना आन. ॥ ॥

भोगमहीं डूबी गयुं चंचल मन जेनुं, समाधिमां जोडाय ना मन कदिये तेनुं. ॥ ॥

त्रिगुणात्मक छे वेद तो, गुणातीत तुं था, द्वन्दरहितने शुद्ध ने ज्ञानी योगी था. ॥ ४५ ॥

कुवातणो जे हेतु ते सरोवरमांहि सरे, तेम वेदनो मर्म सौ ज्ञानमांहि मळे. ॥ ॥

कर्म करी ले, कर नहीं फळनी चिन्ता तुं, कर्म छोडजे ना कदी, शिक्षा आपुं हुं. ॥ ॥

संग तजी मन योगमां जोडी कर्म कराय, फलमां समता राख तो, समतायोग गणाय. ॥ ॥

ज्ञान विनानुं कर्म ना उत्तम छे तेथी, ज्ञानी बन, फल चाहता कृपण कह्या तेथी. ॥ ॥

पापपुण्यथी पर रहे ज्ञानी योगी तो, योगी था तुं, कर्ममां कौशल योग कह्यो. ॥ ५० ॥

ज्ञानी कर्मोना फले ममता ना राखे, जन्मबंधनथी छूटतां अमृतरस चाखे. ॥ ॥

ज्ञानथकी तुं मोहने तरी जशे ज्यारे, बाह्यज्ञान ने भोगनी विरति थशे त्यारे. ॥ ॥

बहु सुणवाथी चे थई चंचल बुद्धि ते, अचल समाधि महीं जशे, त्यारे योग थशे. ॥ ॥

अर्जुन कहे छे:
स्थिर बुद्धि छे जेमनी, समाधि पाम्या जे, केम रहे ते ने वदे, शे ओळखाय ते? ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
छोडे सघळी कामना मनमां उठती जे, आत्मनंदे मग्न छे स्थितप्रज्ञ कह्या ते. ॥ ५५ ॥

दुःख पडे तो शोक ना, सुखनी ना तृष्णा, राग क्रोध भय छे गया, ते मुनि स्थित मनना. ॥ ॥

सारुं माठुं पामतां चंचल जे ना थाय, न शोक करे के ना हसे, ज्ञानी ते ज गणाय. ॥ ॥

जेम काचबो अंगने संकोची ले छे, इंद्रियोने विषयथी ज्ञानी संकेले. ॥ ॥

विषयो जे ना भोगवे तेना विषय छुटे, रह्यो सह्यो पण स्वाद तो प्रभु पाम्ये ज छुटे. ॥ ॥

यत्न करे ज्ञानी छतां इंद्रियो बलवान, मनने खेंची जाय छे विषयोमां ते जाण. ॥ ६० ॥

तेना पर संयम करी मत्पर जे जन थाय, इंद्रियो वशमां करे ज्ञानी ते जे गणाय. ॥ ॥

ध्यान धर्याथी विषयनुं संग छेवटे थाय, काम संगथी क्रोध कामथी ते पछीथी थाय. ॥ ॥

(ध्यान धर्याथी विषयनुं संग छेवटे थाय, काम संगथी क्रोध कामथी पछीथी थाय. ॥ ॥)
क्रोध थकी संमोह ने विवेकनो पण नाश, अंते बुद्धिनाश ने तेथी थाय विनाश. ॥ ॥

रागद्वेशने छोडतां विषयो सेवे जे, संयमने साधी सदा प्रसाद पामे ते. ॥ ॥

ते प्रसन्नताथी थतो सर्व दुःखनो नाश, प्रसन्नताथी थाय छे मनमां स्थिरता-वास. ॥ ॥

चंचलने बुद्धि नथी, नथी भावना तेम, भावना विना शांति ना, अशांतने सुख केम? ॥ ॥

इंद्रियोनी साथमां मा पण जो जाये, नाव वायुथी तेम तो बुद्धि हरण थाये. ॥ ॥

तेथी जेणे इंद्रियो विषयोथी वाळी, तेनी बुद्धि थाय छे स्थिरता-सुखवाळी. ॥ ॥

विशयोमां ऊंघे बधां, योगी विषय-उदास, प्रभु प्रकाशथी दूर सौ, योगी प्रभुनी पास. ॥ ॥

समुद्र पाणीथी बने जेम कदी न अशांत, तेम कामनाथी रहे निर्विकार ने शांत. ॥ ॥

ते ज शांतिने मेळवे तृष्णा ना जेने, अहंकार ममता तजे, शांति मळे तेने. ॥ ७१ ॥

ब्राह्मी स्थिति आ मेळवी मोहित ना कदी थाय, मरण समे तेमां रह्ये मुक्ति मारग जाय. ॥ ७२ ॥

अध्याय ३: कर्मयोग
अर्जुन कहे छे:
कर्मथकी जो श्रेष्ठ हो प्रभो, खरेखर ज्ञान, युद्धकर्ममां केम तो खेंचो मारुं ध्यान? ॥ ॥

मोह पमाडो कां मने, एक कहो ने वात, एकज वात करो मने, धन्य करुं के जात. ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
ज्ञानी ने योगीतणा आ संसारे बे, जुदा जुदा माअर्गो कह्या श्रेयतणा छे में. ॥ ॥

कर्म करे ज मनुष्य ना तो ना उत्तम थाय, छोडी दे जो कर्मने तोये ना शुख थाय. ॥ ॥

कर्म कर्या विण ना रहे कोई ये क्षणवार, स्वभावथी मानव करे कर्म हजारो वार. ॥ ५ ॥

काबु करी इंद्रियनो मनथी स्मरण करे, विषयोनुं जो मानवी, तो ते दंभ करे. ॥ ॥

मनथी संयम साधतां अनासक्त पण जे, कर्म करे इंद्रियथी, श्रेष्ठ गणाये ते. ॥ ॥

नियत कर्म कर, श्रेष्ठ छे अकर्मथी तो कर्म, अनासक्त बनतां सदा तेथी तुं कर कर्म. ॥ ॥

ब्रह्माए आ सृष्टिना आरंभे ज कह्युं, कामधेनु आअ यग्नथी सर्जो सृष्टि कह्युं. ॥ ॥

देवोनी सेवा करो, ते सेवो तमने, एकमेकनी सेवाथी मळो श्रेय तमने. ॥ ॥

प्रसन्न देवो यज्ञथी ईष्टभोग दे छे, आप्याविण जे खाय ते चोर कहे तेने. ॥ ॥

यज्ञशिष्ट खानारना पाप बधा ये जाय, एकलपेटा जे बने ते तो पाप ज खाय. ॥ ॥

प्राणी थाये अन्नथी, अन्न वृष्टिथी थाय, वृष्टि थाये यज्ञथी, यज्ञ कर्मथी थाय. ॥ ॥

कर्म थाय प्रकृतिथकी, प्रकृति प्रभुथी थाय, तेथी यज्ञे ब्रह्मनी सदा प्रतिष्ठा थाय. ॥ १५ ॥

चाले छे आ चक्र ते मुजब न चाले जे, मिथ्या जीवे मूर्ख ने पापी लंपट ते. ॥ ॥

आत्मामां संतोष ने आत्मरत छे जे, आत्मामां जे मग्न छे कर्म नथी तेने. ॥ ॥

(आत्मामां संतोष ने रतिसुख छे जेने, आत्मामां जे मग्न छे कर्म नथी तेने. ॥ ॥)
कर्म करीने तेमने मेळववुं ना कैं, न कर्ये कैं न गुमाववुं, मुक्त रह्या ते थै. ॥ ॥

आसक्ति छोडी दई योग्य करे जे कर्म, ते मंगलने मेळवे, कर तुं तेम ज कर्म. ॥ ॥

सिद्ध थया छे कर्मथी जनकसमा कैं लोक, लोकोना हित सारूये कर्मो न छे फोक. ॥ २० ॥

उत्तम जन जे जे करे ते बीजा करता, प्रमाण तेनुं मानतां लोको अनुसरता. ॥ ॥

मारे आ संसारमां कैं ना मेळववुं, तो पण जो ने कर्ममां सदा रह्यो रत हुं. ॥ ॥

जो हुं कर्म करुं नहीं, तजे बधा तो कर्म, लोकोनुं हित थाय ना, ना सचवाये धर्म. ॥ ॥

करूं नहीं हुं कर्म तो नष्ट जगत आअ थाय, संकर्ता ने नाशनो मुजने दोष अपाय. ॥ ॥

अज्ञानी आसक्त थै कर्म करे छे जेम, ज्ञानी आसक्ति मुकी, कर्म करे सौ तेम. ॥ २५ ॥

अज्ञानीमां ते कदी शंका जगवे ना, कर्म करी उत्तमपणे प्रेरे जनने हा! ॥ ॥

प्रकृतिना गुणथी थतां कर्म छतां जाणे, मूढ अहंकारे गणे कर्ता पोताने. ॥ ॥

गुण ने कर्म-विभागने जे जाणे छे ते, गुण वर्ते गुणमां गणी ना आसक्त बने. ॥ ॥

प्रकृतिगुणथी मूढ ते डूबे कर्ममहीं, ए अज्ञानीने करे ज्ञानी चलित नहीं. ॥ ॥

अर्पण कर कर्मो मने, ममताने तज तुं, स्वधर्म समजी युद्धमां, पार्थ, लडी ले तुं. ॥ ३० ॥

श्रद्धा राखीने मुकी ईर्षा कर्म करे, कर्मोनां बंधन बधां तेनां तुर्त टळे. ॥ ॥

मदथी मत्त बनी करे कर्म आम ना जे, नष्ट थयेलो जाणजे विमूढ मानव ते. ॥ ३२ ॥

पोतानी प्रकृति मुजब ज्ञानी कर्म करे, प्रकृति मुजब करे बधां, निग्रह केम करे? ॥ ॥

इंद्रियोना विषयो छे रागद्वेषवाळा, शिकार तेना ना थवुं ते दुश्मन सारा. ॥ ॥

स्वधर्म छे उत्तम कह्यो परधर्म थकी खास, स्वधर्ममां मृत्यु भलुं, परधर्म करे नाश. ॥ ॥

युद्ध धर्म तारो खरे, त्याग भिक्षुनो धर्म, मृत्यु मळे तोये भले, कर तुं तारुं कर्म. ॥ ३५ ॥

अर्जुन कहे छे:
कोनाथी प्रेराईने पाप करे छे लोक, ईच्छा न होये छतां जाणे खेंचे को॑क? ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
ईच्छा तृष्णा वासना, क्रोध कह्यो छे जे, ते ज करावे पापने, दुश्मन जनना ते. ॥ ॥

दर्पण मेलाथि, राखथी आग जेम ढंकाय, गर्भ ओरथी, कर्म सौ काम थकी ढंकाय. ॥ ॥

(दर्पण मेले, राखथी आग जेम ढंकाय, गर्भ ओरथी, कर्म सौ त्यम तेथी ढंकाय. ॥ ) ॥

सदा अतृप्त कामाग्नि ज्ञानीनो रिपु छे, ढांकी दे छे ज्ञानने अग्नि साचे ते. ॥ ॥

(अतृप्त अग्नि कामनो ज्ञानीनो रिपु छे, ढांकी दे छे ज्ञानने अग्नि साचे ते. ॥ ॥)
मन बुद्धि इंद्रिय छे तेना नित्य निवास, ते द्वारा मोहित करे मानवने ते खास. ॥ ४० ॥

मन बुद्धि इंद्रियनो तेथी काबू करी, ज्ञान नाश करनार ते काम नाख हरी. ॥ ॥

(मन बुद्धि इंद्रियनो तेथी काबू करी, ज्ञान नाश करनार ते पापी नाख हरी. ॥ ॥)
इंद्रियो बळवान छे, मन तेथी बळवान, मनथी बुद्धि श्रेष्ठ छे, आत्मा उत्तम जाण. ॥ ॥

आत्माने उत्तम गणी, आत्मशक्ति धारी, कामरूप आ शत्रुने शीघ्र नाख मारी. ॥ ४३ ॥

अध्याय ४: कर्मब्रह्मार्पणयोग
श्री भगवान कहे छे:
विवस्वानने योग आ पहेलां कह्यो में, मनुने कह्यो तेमणे, इक्ष्वाकुने मनुए. ॥ ॥

(विवस्वानने योग आ पहेलां कह्यो में, मनुने कथियो तेमणे, इक्ष्वाकुने मनुए. ॥ ॥)
परंपराथी जाणता राजर्षि आ योग, काळ जवाथी ते खरे नष्ट थयो छे ते योग. ॥ ॥

रहस्यवाळो योग ते तुजने पार्थ, कह्यो, भक्त तेम मानी सखा उत्तम योग कह्यो. ॥ ॥

अर्जुन कहे छे:
विवस्वान पूर्वे थया, तमे थया हमणा, योग तमे क्यांथी कह्यो, थाय मने भ्रमणा. ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
मारा ने तारा खरे जन्म अनेक थया, मने याद ते सर्व छे, तने न याद रह्या. ॥ ५ ॥

छुं जगस्वामी अज छतां जन्म लउं छुं हुं, प्रक्रुतिना आधारथी प्रकट थउं छुं हुं ॥ ॥

ज्यारे ज्यारे धर्मनो थई जाय छे नाश, अधर्म व्यापे ते समे जन्म लउं छुं खास. ॥ ॥

रक्षुं सज्जनने अने करुं दुष्टनो नाश, स्थापुं साचा धर्मने पूरुं भक्तनी आश. ॥ ॥

दिव्य जन्म ने कर्मने मारा जाणे जे, मरण पछी जन्मे नहीं, मने मेळवे ते. ॥ ॥

भय ने क्रोध तजी दई, करीने मने प्रेम, तप ने ज्ञानथकी घणा पाम्या मुजने तेम. ॥ १० ॥

जेवा भाव थकी मने भक्त भजे मारा, तेवा भावे हुं भजुं ते सौने प्यारा! ॥ ॥

सर्व प्रकारे मानवी मुज मार्गे चाले, मंगल तेनु थाय जे मुज मार्गे चाले. ॥ ११ ॥

बीजा देवोने भजे प्रेम करीने जे, साचे सिद्धि पामता पूजी तेमने ते. ॥ ॥

चार वर्ण में सर्जिया गुण कर्म अनुसार, तेनो कर्ता हुं छतां अकर्ता मने जाण. ॥ ॥

(चार वर्ण में सर्जिया गुण ने कर्मे मान, तेनो कर्ता हुं छतां अकर्ता मने जाण. ॥ ॥)
मने कर्म बंधन नथी, नथी कर्म ममता, मानव समजे एम ते कर्म थकी छुटता. ॥ ॥

एवुं जाणीने कर्या पहेलां कैंये कर्म, एमज करजे कर्म तो सचवाशे तुज धर्म. ॥ ॥

अकर्म तेमज कर्ममां मोहाया विद्वान, कर्म कहुं जेथी रहे नहीं अशुभमां ध्यान. ॥ ॥

कर्म अकर्म विकर्मनो योग्य जाणवो मर्म, कर्म रहस्य पिछानवुं, गहन खरे छे कर्म. ॥ ॥

अकर्म देखे कर्ममां कर्म अकर्मे जे, उत्तम कर्मी ते कह्या, ज्ञानी सौमां ते. ॥ ॥

फळनी तॄष्णा त्यागतां कर्म करे छे जे, देह ज्ञानथी कर्मने, पंडित साचे ते. ॥ ॥

आसक्तिने छोडतां नित्य तृप्त ज्यम जे, कर्म करे छे मानवी, करे कैं नहीं ते. ॥ २० ॥

तृष्णा संग्रह छोडतां, मननो काबु करी, शरीरकर्म कर्या तकी थाये पाप नहीं. ॥ ॥

लाभालाभे तृप्त जे द्वन्दातीत सदाय, कर्मने करे तोय ते ना बंधाय कदाय. ॥ ॥

संगरहित ने मुक्त छे ज्ञान परायण जे, कर्म यज्ञ भावे करे, कर्म न बांधे ते. ॥ ॥

अग्नि ने समिधा वळी हविये ब्रह्मस्वरूप, कर्म ब्रह्ममय तेमने जे छे ज्ञानस्वरूप. ॥ ॥

देवयज्ञ कोई करे योगीजन जगमां, ब्रह्माग्निमां यज्ञने अन्य करे जगमां. ॥ २५ ॥

संयमना अग्निमहीं ईंद्रियो बाळे, कोई ईंद्रियोमहीं विषयोने बाळे. ॥ ॥

ज्ञान भरेला आत्मनो संयममय अग्नि, कोई होमे प्राणने जगवी ए अग्नि. ॥ ॥

द्रय्वयज्ञ, तपयज्ञ ने योगयज्ञ पण थाय, ज्ञानयज्ञ कोई करे, व्रत तीक्ष्ण घणां थाय. ॥ ॥

प्राणायमी प्राणने अपानमां होमे, प्राण रोकता, प्राणमां अपानने होमे. ॥ ॥

काबु करी आहारनो होमे प्राणे प्राण, यज्ञ जाणता; यज्ञथी पवित्र सौने जाण. ॥ ३० ॥

यज्ञामृत खानारने ईष्वरप्राप्ति थाय, यज्ञहीनने आअ जगे पछीय सुख न थाय. ॥ ॥

ब्रह्माए आवी रीते अनेक यज्ञ कह्या, कर्मजन्य ते जाण तो पाप थशे न कदा. ॥ ॥

द्रव्ययज्ञथी ज्ञाननो यज्ञ श्रेष्ठ तुं जाण, कर्म बधांये ज्ञानमां पूर्ण थाय ते मान. ॥ ॥

अनुभववाळो होय जे ज्ञानी तेमज होय, ती नमतां सेवतां पूछ प्रश्न तुं कोय. ॥ ॥

ज्ञान तने ते आपशे, तेथी मोह जशे, जग आखुं मुजमां पछी जोशे आत्म विशे. ॥ ३५ ॥

पापीमां पापी हशे कोई आअ जगमां, ज्ञाननावमां बेसतां तरी जशे भवमां. ॥ ॥

भस्म करे छे काष्टने बाळी अग्नि जेम, ज्ञानग्नि कर्मो बधां भस्म करे छे तेम. ॥ ॥

ज्ञानसमुं कैंये नथी पवित्र आ जगमांह्य, समय जतां ते मेळवे ज्ञानी अंतरमांह्य. ।
श्रद्धा ने संयम वळी लगनी खूब हशे, जरुर मळशे ज्ञान तो, शांति पण मळशे. ॥ ॥

(श्रद्धा ने संयम वळी लगनी खूब हशे, जरुर मळशे ज्ञान तो, शांति वळी मळशे. ॥ ॥)
अविश्वास शंका हशे तो ते नष्ट थशे, आ जगमां तेने नहीं कोई सुख थशे. ॥ ४० ॥

(अविश्वास शंका हशे तो ते नष्ट थशे, आ जगमां तेने नहीं कोई सुख धरशे. ॥ ४० ॥)
शंका छोडी जेमणे तज्युं वळी अभिमान, तेने बांधे कर्म ना, थयुं जेमने ज्ञान. ॥ ॥

एथी आ अज्ञानथी मोह थयो तुजने, ज्ञानखडगथी छेदतां लड तुं मुक्त मने. ॥ ४२ ॥

अध्याय ५: कर्मस/न्यासयोग
अर्जुन कहे छे:
वखाणो तमे कर्मने तेमज कर्मत्याग, बन्नेमां जे श्रेष्ठ हो कहो ते मने मार्ग. ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
कर्मत्याग ने कर्म ते बन्ने मंगल जाण, कर्मत्यागथी कर्म छे उत्तम एम प्रमाण. ॥ ॥

जेनामां ना वेर छे तेने त्यागी मान, आशा तृष्णा छे नहीं ते सन्यासी जाण. ॥ ॥

द्वन्दथकी छूटी शके ते मुक्ति पामे, सहज शांति तेने मळे दुःख वळी वामे. ॥ ॥

ज्ञानकर्मने पंडितो गणे नहीं अळगा, फळ बन्नेनां एक छे, अज्ञ गणे अळगां. ॥ ॥

मळे ज्ञानथी स्थान ते कर्म थकीय मळे, तेथी तेमां ना कदी ज्ञानी भेद करे. ॥ ५ ॥

खाली कर्म तजवा थकी थाय नहीं सन्यास, कर्म करे जे थाय ते समये त्यागी खास. ॥ ॥

(कर्म करे ना तो पछी थाय नहीं सन्यास, कर्म करे जे थाय ते समये त्यागी खास. ॥ ॥)
पवित्र योगी संयमी समदर्शी छे जे; कर्म करे तोये कदी लिप्त बने ना ते. ॥ ॥

जोतां, सुणतां, सुंघतां, खातां ने वदतां, सुतां उठतां बेसतां, श्वासक्रिया करतां. ॥ ॥

हुं कैये करतो नथी ज्ञानी एम गणे, ईंद्रियो विषयोमहीं वर्ते एम गणे. ॥ ॥

प्रभुने अर्पी ने तजी अहम् करे जे कर्म, तेने पाप अडे नहीं, व्यापे नहीं अधर्म. ॥ १० ॥

काया मन बुद्धि थकी, फक्त ईन्द्रियोथी, शुद्धिकाज कर्मो करे योगी संग तजी. ॥ ॥

फळनी तृष्णा छोडतां शांति लभे ज्ञानी, फळमां बद्ध बनी जता कामी अज्ञानी. ॥ ॥

मनती कर्म तजी, रही नवद्वारे नगरे, कर्म करावे ना कदी आत्मा न कर्म करे. ॥ ॥

(मनती कर्म तजी, रही नवद्वारे नगरे, कर्म करावे ना कदी आत्मा कर्म करे. ॥ ॥)
कर्म अने कर्तृत्व ने कर्मफलतणो योग, प्रभु करे नहीं; ए बधो प्रकृतिनो छे भोग. ॥ ॥

पाप पुण्य कोईतणु ईश्वर ना खाये, जीव भर्या अज्ञानथी तेथी मोहाये. ॥१५ ॥

ज्ञानथकी जेणे हण्युं पोतानुं अज्ञान, सुरज जेम तेना महीं प्रकाशी रहे ज्ञान. ॥ ॥

मन बुद्धि निष्ठा रहे जेनी ते प्रभुमां, ज्ञान-पवित्र फरी न ते जन्मे छे जगमां. ॥।

ब्राह्मण हाथी गाय ने पंडित मूरखमां, ज्ञानी ईश्वरने जुए जड ने चेतनमां. ॥ ॥

जीवतांज जग जीतियुं समतावान जने, ब्रह्म जेम निर्दोष ते ब्रह्ममां ज स्थित छे. ॥ ॥

प्रिय पामी हरखाय ना, अप्रियथी न रडे, स्थिर ने ज्ञानी ब्रह्मथी थाय अभिन्न ते. ॥ ॥

अनासक्त विषयोथकी जे सुखने पामे, सुख अक्षय ते ब्रह्ममां स्थित योगी पामे. ॥ ॥

स्पर्शजन्य भोगो बधा आदि अने अंते, दुःख आपता, तेमहीं ज्ञानी ना ज रमे. ॥ ॥

देह त्याग पहेलां ज जे काम क्रोधना वेग, सहन करे ते श्रेष्ठ छे, सुखी थाय छे तेज. ॥ ॥

आत्मानुं सुख मेळवे, आत्मामां आराम, ते मुक्तिने मेळवे, रहे न कांई काम. ॥ ॥

जीवोनी सेवा करे, दोष करे जे दूर, ते मुक्तिने मेळवे, पडे न मायापूर. ॥ २५ ॥

काम क्रोध जीते, करे मननो संयम जे, भय छोडे जे, मेळवी मुक्तिने ले ते. ॥ ॥

भ्रमर मध्य दृष्टि करी स्थिर रोकतां प्राण, विषयोने अळगा करी धरे न जगनुं ध्यान;
भय ने क्रोध तजे, करे मननो संयम जे, मोक्षपरायण थाय जे, मुक्त गणाये ते.
जीवमात्रनो मित्र ने सृष्टिनो स्वामी, जाणे मुजने ते खरे शांति जाय पामी. ॥ २९ ॥

अध्याय ६: आत्मसंयमयोग
श्री भगवान कहे छे:
फलनो आश्रय छोडतांकर्म करेछे जे, सन्यासी ते छे खरो, योगीजन पण ते. ॥ ॥

अग्निने अडके नहीं, कर्म करे ना तोय, माया ममता होय तो त्यागी थाय ना कोय. ॥ १ ॥

योग अने सन्यास बे अलग खरेज नथी, छोडे ना संकल्प ते योगी थाय नहीं. ॥ ॥

योग-साधना काज तो साधन कर्म मनाय, शमना साधनथी पछी योगारूढ थवाय. ॥ ॥

ईन्द्रियोना विषयनी ममता छूटी जाय, संकल्प मटे ते पछी योगारूढ गणाय. ॥ ॥

करवुं पतन न जातनुं, करवो नित उद्धार, पोते शत्रु मित्र ने पोताना रखवाळ. ॥ ५ ॥

जे मनने जीते सदा, मित्र बने छे ते, पोतानो शत्रु बने मन ना जीते जे. ॥ ॥

जात उपर संयम करीले छे जे योगी, शांत होय ते, होयछे प्रभु-रसनो भोगी. ॥ ॥

टाढ ताप सुखदुःख ने मान तेम अपमान, चलित करे जेने न ते योगी उत्तम जाण. ॥ ॥

पत्थर सोनुं मृत्तिका तेने सरखां होय, तृप्त ज्ञान-विज्ञानमां साक्षी जेवो स्होय. ॥

मित्र शत्रु मध्यस्थ के बंधु स्नेहीमां, समबुद्धि छे ते कह्यो उत्तम योगी हा! ॥

एकंतमहीं बेसवुं योगीए हररोज, तृष्णा ने संग्रह तजी करवी अंतर खोज. ॥ १० ॥

संयम जाततणो करी एकला ज रे॑वुं; पवित्र स्थाने दृढ करी आसनने देवुं. ॥ ॥

ईन्द्रियो मन वश करी, मन एकाग्र करी, आत्म शोधवा योगने करवो शांति धरी. ॥ ॥

काया मस्तक डोकने करवां सरखां स्थिर, नासिकाग्रने देखवुं, धरी चित्तमां धीर. ॥ १३ ॥

स्थिरता राखी, भय तजी, ब्रह्मचर्य पाळी, मन मारामां जोडवुं बीजेथी वाळी. ॥
संयमथी अभ्यासने आम करे छे जे, परम शांति मुजमां रही प्राप्त करे छे ते. ॥ १५ ॥

उपवासी रे॑वुं नहीं, खावुं ना पण खूब, उजागरा करवा नहीं, ऊंघवुं नहीं खूब. ॥ ॥

योग्य करे आहार ने विहार तेमज कर्म, जागे ऊंघे योग्य ते लभे योगनो मर्म. ॥
चित्त थाय वश ने पछी आत्मामां स्थिर थाय, निःस्पृह योगी थाय ते योग युक्त गणाय. ॥
(चित्त थाय वश ने पछी आत्मामां स्थिर थाय, निःस्पृह योगी थाय ते योगी युक्त गणाय. ॥ )
हवा विनाना स्थानमां दिवू ना हाले, तेवुं मन योगी तणुं चळे ने को काळे. ॥ ॥

योगीजनना चित्तनो पूरो संयम थाय, डूबी जाये ध्यानमां, त्यारे रसमां न्हाय. ॥ २० ॥

आत्मानो अनुभव करी आनंदमहीं न्हाय, बुद्धि ने ईन्द्रियथी अतीत सुखमां न्हाय्. ॥ ॥

तेनाथी कोई नथी बीजो उत्तम लाभ, तेने पामी ना चळे पडे भले ने आभ. ॥ ॥

दुःख मटी जये बधुं, तेने योग कह्यो, मनने मजबूत राखतां करवो ते ज रह्यो. ॥ ॥

संकल्पथकी कामना थाये ते टाळे, ईन्द्रियो मनथी बधी संयममां धारे. ॥ ॥

धीरे धीरे बुद्धिने करे पछी उपराम, विचार न करे, मन करी स्थिर ने आत्माराम. ॥ २५ ॥

मन आ चंचळ जाय छे अनेक विषयो मांह्य, वाळी पाछुं जोडवुं तेने आत्मा मांह्य. ॥ ॥

करतां एम थई जशे मन आत्मामां शांत, सुख उत्तम त्यारे थशे, दोष थशे सौ शांत. ॥ ॥

रोज करे छे योग आ ते तो निर्मल थाय, ब्रह्मप्राप्तिसुख पूर्ण ते पामी तेमां न्हाय. ॥ ॥

आत्माने सौ जीवमां आत्मामां सौ जीव, योगी जुए हंमेश ए समदर्शीनी रीत.
जे मुजने सघळे जुए, ने मारामां सर्व, तेनाथी ना दूर हुं, ते ना मुजथी दूर. ॥ ३० ॥

रहेल सर्वे जीवमां मने भजे छे जे, वर्ते सर्वपणे भले, मुजमां वर्ते ते. ॥ ॥

आत्मा जुए सौमां अने अनुभव करे समान, जाणे परनी पीड ते योगी मान महान. ॥ ॥

अर्जुन कहे छे:
समतानो आ योग जे कह्यो तमे प्रभु हे, चंचलताने कारणे अशक्य लागे ते. ॥ ॥

मन चंचल बळवान छे जक्की तेमज खूब, वायु सम मुश्केल छे तेनो संयम खूब. ॥ ॥

(मन चंचल बळवान छे जक्की तेमज खूब, वायु जेम मुश्केल छे तेनो संयम खूब. ॥ ॥)
श्री भगवान कहे छे:
मनने चंचल चे कह्युं, ते छे सत्य खरे, प्रयत्न ने वैराग्यथी योगी काबू करे. ॥ ३५ ॥

असंयमीने योग तो लागे बहु मुश्केल, संयमशीलने प्रयत्नथी लागे ते तो शेल. ॥ ॥

(असंयमीने योग तो मुश्केल कह्यो छे, संयमशील प्रयत्नथी प्राअप्त करे छे ते. ॥ ॥)
अर्जुन कहे छे:
असंयमी श्रद्धाभर्यो चलित योगथी थाय, योगसिद्धि ना पामतां तेई ही गती थाय? ॥ ॥

छिन्नभिन्न वादळसमो विनाश तेनो थाय? ब्रह्मप्रतिष्ठाहीन ते विमूढनुं शुं थाय? ॥ ॥

पूर्णपणे मारी तमे शंका दूर करो, अन्य कोण हरशे न जो, शंका तमे हरो? ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
आ लोके परलोकमां नाश न ते पामे, मंगलकर्ता ना कदी दुर्गतिने पामे. ॥ ४० ॥

पुण्य भरेला लोकने ते योगी पावे, पछी पवित्र घरोमहीं जन्म लई आवे. ॥ ॥

ज्ञानी योगीना कुले अथवा जन्म धरे, दुर्लभ जगमां को॑कने आवो जन्म मळे. ॥ ॥

पूर्वजन्मना जागता त्यां पण सौ संस्कार, यत्न करे योगी वळी भवने करवा पार. ॥ ४३ ॥

पूर्व जन्मसंस्कारथी अवश्य योग करे, योगेच्छाथी तत्त्व ते उत्तम प्राप्त करे. ॥ ॥

प्रयत्न खूब कर्या थकी मेल हृदयना जाय, एम घणा जन्मे पछी सिद्ध योगमां थाय. ॥ ४५ ॥

ज्ञानी तपसीथी कह्यो योगी उत्तम में, कर्मीथी छे श्रेष्ठ तो, योगी तुं य थजे. ॥ ॥

मारामां मन जोडतां, करी वळी विश्वास, भजे मने दिनरात ते उत्तम योगी खास. ॥ ४७ ॥

अध्याय ७: ज्ञानविज्ञानयोग
श्री भगवान कहे छे:
मारामां आसक्त थई आश्रय मारो ले, जाणे मुजने केम तेहवे कहुं छुं ते. ॥ १ ॥

ज्ञान कहुं तुनजे वळी पूर्ण कहुं विज्ञान, जेने जाणी जाणवुं रहे कै ना आन. ॥ २ ॥

हजारमां कोई करे सिद्धिकाज प्रयास, करतां यत्न हजारमां कोई पहोंचे पास. ॥ ॥

मारी पासे पहोंचतां कोई पामे ज्ञान, सांभळ, जो तुजने कहुं उत्तम मारुं ज्ञान. ॥ ३ ॥

पृथ्वी पाणी तेज ने वायु चित्त आकाश, अहंकार बुद्धि कही मारी प्रकृति आठ. ॥ ॥

(पृथ्वी पाणी तेज ने वायु चित्त आकाश, अहंकार बुद्धि कही मारी प्रकृति खास. ॥ ॥)
बीजी जीवरूपे रही छे मारी प्रकृति, तेनाथी जगने रचुं, ते उत्तम प्रकृति. ॥ ५ ॥

आ बन्ने प्रकृतिथकी प्राणी सर्वे थाय, सर्जन तेम विनाशनुं स्थान मने सौ गाय. ॥ ॥

उत्तम मुजथी को नथी, माराविण कैं ना, जग मुजमां छे, जेम आ मणका दोरामां.
पाणीमां रस हुं थयो, सूर्यचन्द्रमां तेज, वेदमहीं ॐकार छुं, पौरुष नरमां सहेज. ॥ ॥

पृथ्वीमां छुं गंध ने तप छुं तापसमां, जीवन प्राणीमात्रनुं, शब्द तयो नभमां. ॥ ॥

बीज सर्व प्राणीतणुं मने सदाये जाण, बुद्धि तेमज वीरता वीरलोकमां मान. ॥ १० ॥

बळ बनतां सेवा करुं बळवानोमां हुं, अधर्मथी पर काम्ना जीवमात्रमां छुं. ॥ ॥

सत्व अने रजतमतणा उपजे मुजथी भाव, ते मुजमां छे, हुं नथी ते भावोनी माह्य. ॥ ॥

त्रण गुणवाळी छे कही मारी जे माया, तेनाथी मोहित थया रंक अने राया. ॥ ॥

माया छे मारी खरे तरवी आअ मुश्केल, तरी जाय छे ते ज जे मारुं शरण ग्रहेल. ॥ ॥

मूढ मने पामे नहीं अधर्मथी भरिया, मानवरूपे ते फरे तोय जाण मरिया. ॥ १५ ॥

दुःखी तेमज ज्ञाननी इच्छावाळा लोक, संसारी आशाभर्या, ज्ञानी तेमज को॑क. ॥ ॥

चार जातना मानवी मने भजे छे ते, तेमां ज्ञानी भक्तने श्रेष्ठ कह्यो छे में. ॥ ॥

महान छे बीजा छतां ज्ञानी मारो प्राण; ज्ञानी संधाई गयो मारी साथे जाण. ॥ ॥

घणाय जन्म पछी मने ज्ञानी पामे छे; प्रभु पेखे जगमां बधे, संत सुदुर्लभ ते. ॥ ॥

कामनाभर्या कैं जनो नियम घणा पाळी, अन्य देवताने भजे, स्वभावने धारी. ॥ २० ॥

श्रद्धापूर्वक देवने भक्त भजे छे जे, तेनी श्रद्धा हुं करुं दृढ देवमहीं ते. ॥ ॥

श्रद्धापूर्वक ते पछी तेनी भक्ति करे, मारी द्वारा कामना-फळने प्राप्त करे. ॥ ॥

अल्पबुद्धि ए भक्तना फळनो थाय विनाश, देव भज्ये देवो मळे, मने भज्ये मुज पास. ॥ ॥

अज्ञानी मुज रूपनी मर्यादा माने, विराट उतम रूप ना मारुं ते जाणे. ॥ ॥

मायाथी ढंकायेलुं मारुं पूर्ण स्वरूप, मूढ ओळखे ना कदी मारुं दिव्य स्वरूप. ॥२५ ॥

भूतभावि जाणुं, वळी वर्तमान जाणु, जाणुं हुं सौने, मने कोई ना जाण्युं. ॥ ॥

वेर झेर तृष्णाथकी भवमां भटके लोक, जेना पाप टळी गया भजे मने ते को॑क. ॥ ॥

मोतथकी छुटवा वळी घडपणने हरवा, भजे शरण मरुं लई दुःख दूर करवा. ॥ ॥

दृढ निरधार करे अने द्वन्दमुक्त ते थाय, पुण्यवान ते तो मने जाणी रसमां न्हाय. ॥ ॥

ब्रह्मकर्म अध्यात्म ने अधिभूत ने अधियज्ञ, जे जाणे ते थाय छे मारामां संलग्न. ॥ ३० ॥

अध्याय ८: अक्षरब्रह्मयोग
अर्जुन कहे छे:
ब्रह्म वळी अध्यात्म शुं, कर्म कहे कोने, अधिभूत ने अधिदैव हे प्रभो, कहे कोने? ॥ ॥

मृत्यु आवे ते समे योगीजन तमने, केम करी जाणी शके, कहो कृपाळु, मने. ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
अक्षर छे परब्रह्म ने स्वभाव छे अध्यात्म, जगसर्जन ने नाशनो व्यापार कहे छे कर्म. ॥ ॥

क्षर ते छे अधिभूत ने पुरुष कह्यो अधिदैव, अधियज्ञ कह्यो छे मने शरीरमांनो देव. ॥ ॥

याद करी प्रेमे मने जे छोडे छे देह, ते पामी ले छे मने, तेमां ना संदेह. ॥ ॥

जेने याद करी तजे मृत्यु समजे देह, तेने पामे जीव आअ, तेमां ना संदेह. ॥ ॥

तेथी रातदिवस मने याद करी लडजे, मन मारामां राखजे, मुजने मेळवजे. ॥ ॥

योगीजन अभ्यासथी प्रभुमां मन जोडे, प्रभुने पामी ले वडी ज्यारे तन छोडे. ॥ ॥

ज्ञानी तेम अनादी ते सौना स्वामी छे, प्रभुजी पूर्ण प्रकाश ने अनंतनामी छे. ॥ ॥

अंतसमे तेने करे याद प्रेमथी जे, मनने जोडे तेमहीं, पामे प्रभुने ते. ॥ १० ॥

वेद कहे अविनाशी ने मुनि जेने जाणे, जेने माटे कैं करे ब्रह्मचर्य ध्याने; ॥ ॥

मन अंतरमां रोकतां द्वार बधा रोकी, योगी राखे प्राणने मस्तकमां रोकी. ॥ ॥

पछी जपे छे प्रणवने, ध्यान धरे मारुं, एम तजे छे देह ते पामे गती चारुं. ॥ ॥

सदा करे छे याद जे मुजने प्रेम करी, ते जे मेळवे छे मने, जगने जाय तरी. ॥ ॥

मने मेळवीने फरी जन्मे ना कोई, दुःख शोक के व्याधिमां पडे नहीं कोई. ॥ १५ ॥

ब्रह्मलोक ने लोक सौ बीजा कैंक कह्या, तेमां जन्ममरण थतां, ते ना अमर गण्या. ॥ ॥

मने ज मेळववाथकी अमर बने छे लोक, जन्ममरण साचे टळे, टळे ताप ने शोक. ॥ ॥

चार जातना युग कह्या, ते असु साथ मळे, हजार युग ब्रह्मातणो एक जदिवस करे. ॥ ॥

तेवी रात बने वळी आ ब्रह्मांड विशे, दिवसे जीवो जन्मता, मरता रात विशे. ॥ ॥

जीव बध जन्मे वळी प्रलय तेअनो थय, प्रकट थाय दिवसे अने राते छेक समाय. ॥ ॥

तेथी उत्तम चे कह्या प्रभु सौना स्वामी, प्रलयमांय ते न मरे प्रभु अनंतनामी. ॥ २० ॥

अविनाशी ते ईश छे, परमधाम पण ते, तेने पामी न फरे पाछुं कोई ये. ॥ ॥

उत्तम भक्ति होय तो ते प्रभु दर्शन दे, जग जेअमां छे रह्युं, व्यापक सघळे ते. ॥ ॥

ज्यारे मरतां न कदी जन्मे योगीजन, जन्मे ते वेळा कहुं, सांभळ राखी मन. ॥ ॥

अग्नि, ज्योति, दिवस ने शुक्लपक्ष जो होय, उत्तरायणे तन तजे, ते प्रभु पामे कोय. ॥ ॥

धुम्र, रात, वद होय ने दक्षिणायन जो, चंद्रलोकने मेळवी फरी जन्मता तो. ॥ २५ ॥

शुक्लकृष्णनी आ गती शाश्वत छे आ जगमां, जन्म थाय छे एकथी, ना जन्मे परमां. ॥ ॥

आअ जाणी योगी कदी मोहित नहीं थशे, तेथी सर्व काळमां योगी तुं बनजे. ॥ ॥

वेदयज्ञ तपदाननुं पुण्य कह्युं छे जे, योगी पदने मेळवे तेथी उत्तम ते. ॥ २८ ॥

अध्याय ९: राजविद्याराजगुह्ययोग
श्री भगवान कहे छे:
खूब ज छूपुं ज्ञान ने वळी कह्युं विज्ञान, मुक्त करे जे अशुभथी, कहुं हवे ते ज्ञान. ॥ ॥

पवित्र ने सुखकर कही उत्तम विद्या ते, अनुभव करवा योग्य ने उत्तम विद्या छे. ॥ ॥

माने ना आ धर्मने, श्रद्धा ना राखे, मरे जन्म ले ते, नहीं मुक्तिरस चाखे. ॥ ॥

अखंड मारुं रूप आ जगमां व्यापक छे, मारामां जीवो बधा खरे रहेला छे. ॥ ॥

मारा अंशे ए रह्या, पूर्णरूपमां ना, जीव रह्या मुजमां छतां हुं लेपाउं ना. ॥ ५ ॥

वायु वहेनारो बधे रहे व्योममां जेम, चराचर रहे मुजमहीं समजी लेजे एम. ॥ ॥

कल्पान्ते मारामहीं लय सौनो ये थाय, कल्पारंभे मुजथकी सर्जन सौनुं थाय. ॥ ॥

प्रकृतिनो आश्रय लई सर्जुं वारंवार, जीव बधा आ जगतमां सर्जुं वारंवार. ॥ ॥

ए सर्वे कर्मो मने बंधन ना करता, उदासीन निर्लेप हुं रहुं कर्म करतां. ॥ ॥

मारा हाथ तळे रही प्रकृति जगत करे, तेथी जगमां थाय छे परिवर्तन सघळे. ॥ १० ॥

मनुष्यरूपे हुं रह्यो एम मूढ जाणे, विराट मारा रूपने ना कदी परमाणे. ॥ ॥

मूढ जनूनां कर्म ने विचार मेला होय, स्वभाव हलको तेमनो, संसारे रत होय. ॥ ॥

ज्ञान कर्म आशातणुं फळ ते ना पामे, मोहमही प्रकृतिथकी संकट ना वामे. ॥ ॥

पवित्र दिव्य स्वभावना महात्माजनो को॑क, भावथकी भजता मने पामी मृत्युलोक. ॥ ॥

मारुं कीर्तन ते करे, यत्न करे मुजकाज, नमे मने, पाळे वळी नियमो मारेकाज. ॥ ॥

द्वैत तेम अद्वैत ने विश्वभावनाथी, मानीने भजता मने कैंये ज्ञानथकी. ॥ १५ ॥

ऋतु ने यज्ञ स्वधा वळी औषध ने धृत छुं, मंत्र हवन अग्नि बनी वास करुं छुं हुं. ॥ ॥

आ जगनो छुं हुं पिता, माता धाता छुं, वेद तेम ॐकार ने गति ने भर्ता छुं. ॥ ॥

शरण, सर्वनो मित्र ने सौनुं कारण छुं, गति, भर्ता, साक्षी वळी अविनाशी प्रभु छुं. ॥ ॥

हुं वरसाद करुं वळी ताप तपावुं छुं, सुधारूप ने सत्य छुं, मृत्युनो पति छुं. ॥ ॥

यज्ञ करे जे प्रेमथी ते जन स्वर्गे जाय, पुण्यथकी दैवी घणा भोगे स्वर्गे न्हाय. ॥ २० ॥

पुण्यथाय पूरुं पछी जन्मे पृथ्वीमांह्य, आवागमनथकी ते न छूटे छे जगमांह्य. ॥ ॥

दर्शन मारुं ना करे त्यांलग मुक्त न थाय, कोई सुख ने दुःखथी कदी न छूटी जाय. ॥ ॥

मारुं शरण लई करे मारुं चिंतन जे, तेना कोड बधा पूरुं, रक्षुं छुं ती. ॥ ॥

(मारुं शरण लई करे मारि चिंता जे, तेना कोड बधा पूरुं, रक्षुं छुं ती. ॥ ॥)
अन्य देवने जे भजे, मने ज भजता ते, सर्व जातना यज्ञनो स्वामी जाण मने. ॥ ॥

मने ज जाणवाथी ज ना अवगतिने पामे, मने न जाणे ते सदा दुर्गतिने पामे. ॥ ॥

देव भज्ये देवो मळे, पितृ भज्ये पितृ, भूतोथी भूतो मळे, मने भजे मळुं हुं. ॥ २५ ॥

फळ के फूल मने धरे, पर्ण तेम पाणी, धर्युं भावथी सर्व हुं आरूगुं राजी. ॥ ॥

(फळ के फूल मने धरे, पर्ण तेम पाणी, धर्युं भावथी सर्व हुं आरूगुं दानी. ॥ ॥)
तेथी तुं जे जे करे, तपे, दान दे, खाय, करजे अर्पण ते मने, अहंभाव ना थाय. ॥ ॥

सारांनरसां कर्मथी एम ज तुं छुटशे, त्याग योगथी ने मने प्राप्त करी चुकशे. ॥ ॥

मारे शत्रुमित्रना, सौये सरखा छे, भजे भावथी ते छतां नजीक अदकां छे. ॥ ॥

खूब अधर्मीये मने भजे करीने प्रेम, तो ते संत थई जशे पामी मारी रे॑म. ॥ ॥

शांति पूर्ण ते पामशे, धर्मात्मा बनशे, मारो भक्त कदी नहीं अर्जुन नष्ट थशे. ॥ ॥

पापी, स्त्री ने शुद्रये गुण मारा गाशे, लेशे मारुं शरण तो उत्तम गति थाशे. ॥ ॥

पछी भक्त ब्राह्मण अने ज्ञानीनुं तो शुं, जन्मीने आ जगतमां मने भजी ले तुं. ॥ ॥

मनथी भज मुजए अने तनथी कर सेवा, कर्म मने अर्पण करी माणी ले मेवा. ॥ ॥

जगमां जोईने मने वंदन कर हररोज, मने पामशे एम तुं करतां मारी खोज. ॥ ॥

मन वाणीथी भक्त था मारो केवळ तुं, शांति तेम सुख पामशे, सत्य कहुं छुं हुं. ॥ ३४ ॥

अध्याय १०: विभूतियोग
श्री भगवान कहे छे:
फरीवार अर्जुन, तुं सुण वचनो मारां, तारा हित माटे कहुं वचनो ते प्यारा. ॥ ॥

जन्म न मारो जाणता महर्षि अने देव, आदि देव ने ऋशितणो जाणी मुजने सेव. ॥ ॥

लोकोनो ईश्वर मने जे कोई जाणे, दुःखदर्दथी ते छुटी मुक्तिरस माणे. ॥ ॥

क्षमा सत्य बुद्धि वळी शमदम तेमज ज्ञान, सुख दुःख भय ने अभय, सत्यासत्य प्रमाण. ॥ ॥

तप ने समता ने दया, यश अपयश ने दान, भाव थता प्राणीतणा ते सौ मुजथी जाण. ॥ ५ ॥

सात महर्षि ने वळी चार जातना ते, मनु माराथी छे थया, पिता जगतना जे. ॥ ॥

विभुति तेमज योग आ मारो जाणे जे, जोडाये दृढ योगथी मारी साथे ते. ॥ ॥

सौनो हुं स्वामी, वळी मारामां आ सर्व, ज्ञानी समजे एम ने भजे तजीने गर्व. ॥ ॥

मनने प्राणथकी मने भजे कथाय करे, मारी चर्चाथी सदा तृप्ति हर्ष धरे. ॥ ॥

अनन्य प्रेमी भक्तने बुद्धि आपुं छुं, तेथी मुजने मेळवे, बंधन कापुं छुं. ॥ १० ॥

दया करीने ज्ञाननो दीप बनुं छुं हुं, रही हृदयमां तेमनुं अज्ञान हरुं छुं. ॥ ॥

अर्जुन कहे छे:
पवित्र ईश्वर छो तमे, देव जगतना तेम, शश्वत तेमज दिव्य छो, अज अविनाशी तेम. ॥ ॥

नारद तेमज व्यास ने संत कहे छे एम, असित व्यास देवल वळी तमे कहो छो एम. ॥ ॥

साचुं मानुं छुं तमे कहो ते बधुं हुं. देव तेम दानव प्रभो, तमने जाणे शुं! ॥ ॥

तमे ज जाणो छो खरे पूर्ण तमारुं रूप, देवदेव भूतेश हे, जगतनाथ, जगभूप! ॥ १५ ॥

केवी रीते छो तमे व्यापक आअ जगमां? विभूतिथी व्यापक थया केम तमे जगमां? ॥ ॥

ध्यान तमारुं धारता योगी शे जाणुं, क्या भावथी चिंतवुं, भक्ति हुं माणु. ॥ ॥

योगशक्ति विस्तारथी फरी कहो मुजने, अमृत पीतां थायना तृप्ति खरे मुजने. ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
ख्याल ज आपुं छुं तने मारा रूप तणो, बराबर कहुं तो तो थाय विस्तार घणो. ॥ ॥

प्राणी[ओ]मां हुं रह्यो आत्मरूप थई, आदि मध्य ने अंत हुं सौनो रह्यो बनी. ॥ ॥

विष्णु छुं, ऊगुं वळी जगमां सूर्य बनी, मरिची तेम ज चंद्र छुं हुं नक्षत्र महीं. ॥ ॥

सर्व वेदमां दिव्य ते सामवेद हुं छुं, देवोमां छुं ईंद्र ने मन ने चेतन छुं. ॥ ॥

शंकर रूद्रोमां वळी कुबेर पण हुं छुं, अग्नि छुं, मेरु थयो पर्वतमांही हुं. ॥ ॥

देवोना गुरु जे कह्या ते ज बृहस्पति छुं, सेनापतिमां स्कन्द ने सागर जलमां छुं. ॥ ॥

महर्षिमहीं भृगु थयो, हिमालय बन्यो छुं, यज्ञोमां जपयज्ञ ने ॐकार थयो छुं. ॥ २५ ॥

वृक्षोमां छुं पीपळो, नारद तेमज छुं, गंधर्वोमां चित्ररथ, कपिल सिद्धमां छुं. ॥ ॥

अमृतथी प्रगटेल छुं अश्व अलौकिक हुं, ऐरावत हाथीमहीं, मनुष्यमां नृप छुं. ॥ ॥

कामधेनुं छुं गायमां, वज्र शस्त्रमां छुं, धर्मपरायण काम छुं, वासुकि सर्पे हुं. ॥ ॥

अनंत नामे नाग छुं, वरुण तेमज हुं, पितृमां छुं अर्यमा, यमीमहीं यम छुं. ॥ ॥

कालरूप छुं, दैत्यमां प्रह्ल्लाद खरे छुं, पशुमां सिंह थयो वळी, गरुड खगमां छुं. ॥ ३० ॥

पवन तेम पाणीमहीं गंगा पावन छुं, मगरमच्छ छुं, राम छुं शस्त्रवानमां हुं. ॥ ॥

आदि मध्य ने अ/न्त छुं आ सृष्टिनो हुं, विद्यामां अध्यात्म ने वाद विवादे हुं. ॥ ॥

अकार अक्षरमां अने द्वन्द समासे छुं, धाता आश्रय काल छुं अक्षर जगनो हुं. ॥
जन्म तेम मृत्यु वळी थईने रह्यो छुं, स्त्रीनी सुंदरता अने वाणी यश पण हुं. ॥ ॥

धीरज तेम क्षमा थयो, गायत्री पण हुं, मास मागशर ने वळी वसंत ऋतुमां छुं. ॥ ३५ ॥

तेज तेम जय, बल अने बुद्धिरूपे छुं, छळ करनारामां सदा द्युत थयेलो छुं. ॥ ॥

पांडवमां अर्जुन ने वासुदेव छुं हुं, कविमां शुक्राचार्य ने मुनिमां व्यास ज छुं. ॥ ॥

नीति तेम शासकमहीं दंड थयो छुं हुं, गुह्य वातमां मौन ने ज्ञानस्वरूपे छुं. ॥ ॥

जगततणुं छुं बीज हुं, सुणजे अर्जुन, तुं, मारा विण तो आ रहे अस्तित्व खरे शुं? ॥ ॥

मारा दैवीरूपनो अंत नाज आवे, आ तो थोडुं छे कह्युं, कोण बधुं गावे? ॥ ४० ॥

जे जे सुंदर, सत्य ने पवित्र प्रेमल छे, मारा अंश थकी थयुं जाणी लेजे ते. ॥ ॥

बधुं जाणीने तुं वळी करीश अर्जुन शुं? मारा एकज अंशमां विश्व बधुंय रह्युं. ॥ ४२ ॥

अध्याय ११: विश्वरूपदर्शनयोग
श्री भगवान कहे छे:
कृपा करीने जे कह्या हितना शब्द तमे, तेथी मोह जतो रह्यो मारो, प्रभुजी हे! ॥ ॥

उत्पत्तिलय जगतनां सुण्या प्रेमथी में, महिमा जाण्यो छे वळी तमारा थकी में. ॥ ॥

जगना कारण छो तमे, जगना नाशक छो, रूप तमारुं विश्वमां केवु व्यापक हो! ॥ ॥

जोवाने ते रूपने मुजए ईच्छा थाय, योगेश्वर, ते रूपने बतावो, हृदय च्हाय. ॥ ॥

जोई रूप शकीश हुं एवी खात्री होय, योगेश्वर, तो रूपने बतावो, हृदय च्हाय. ॥ ॥

(जोई रूप शकीश हुं एवी खात्री थाय, योगेश्वर, तो रूपने बतावो, हृदय च्हाय. ॥ ॥)
श्री भगवान कहे छे:
जो तुं मारा रूपने अनेक रूप भर्युं, अनेकरंगी रूप ते, दिव्य विराट धर्युं. ॥ ५ ॥

रुद्र मरुत आदित्य ने अश्विनीकुमारो, अचरजकारक जो वळी कैं महिमा मारो. ॥ ॥

जो आ मारा अंगमां साराये जगने, जे जे जोवुं होय ते बतावीश तुजने. ॥ ॥

तारी आंखे ना तने देखाशे मुज रूप, दैवी आपुं आंख हुं, जो तुं दिव्य स्वरूप. ॥ ॥

संजय कहे छे:
एम कही योगीतणा योगी श्री प्रभु[ए], दिव्य बताव्युं रूप ते प्रेमी अर्जुनने. ॥ ॥

आंख हजारो ने वळी मुख हतां हजार, घरेणां अने वश्त्रो हता त्यां खूब अपार. ॥ १० ॥

(आंख हजारो ने वळी मुख हतां हजार, घरेणां अने वश्त्रो हता त्यां नहीं पार. ॥ १० ॥)
माळा तेमज गंधथी शोहित हतुं शरीर, विराट दिव्य अनंत ने अचरजपूर्ण शरीर. ॥ ॥

हजार सूर्य ऊगे कदी ने प्रकाश पथराय, तेमज प्रभुना रूपनुं तेज बधे पथराय. ॥ ॥

प्रभुशरीरमां अर्जुने जग आखुं जोयुं, अनेक रूपोमां रह्युं जग आखुं जोयुं. ॥ ॥

अचरज पामेलो वळी रोमांचित अर्जुन, शीश नमावीने वद्यो रोमंचित अर्जुन. ॥ ॥

अर्जुन कहे छे:
देव, तमारा देहमां समाया बधा लोक, कमळपरे ब्रह्मा अने ऋषि पण त्यां छे को॑क. ॥ १५ ॥

हाथ तेम आंखो वळी पेट गणी न शकाय, आदि मध्य के अंत आ रूपतणो न जणाय. ॥ ॥

मुकुट गदा ने चक्रथी शोभे दिव्य स्वरूप, तेजतणो अंबार आ जो[ई] न शकुं रूप. ॥ ॥

विराट तेम प्रदीप्त छे दिव्य तमारुं रूप, चारे बाजु देखतो दिव्य तमारुं रूप. ॥ ॥

अमर तमे, उत्तम तमे, फक्त जाणवाजोग, धर्मतणा रक्षक तमे, एक अनन्य अमोघ. ॥ ॥

जगना आश्रय, आदि ने अंत विनाना छो, सनातन, बली, विश्वने तपावी रह्या छो. ॥ ॥

सूर्यचंद्रनी आंख छे, हाथ हजार वळी, अग्नि जेवा वदनना, रह्या प्रकाश करी. ॥ ॥

पृथ्वी ने आकाशमां व्यापक एक तमे, सर्व दिशामां छो रह्या दिव्य स्वरूप तमे. ॥ ॥

उग्र रूप जोई थया भयभीत बधा लोक, प्रवेशी रह्या रूपमां देवजनो पण को॑क. ॥ २० ॥

देव तमोने वंदता वंदे ऋषि पण तेम, स्तवन करे छे सिद्ध सौ, गान गाय ना केम? ॥ ॥

रुद्र तेम वसु, साध्य ने विश्वदेव गंधर्व, पितृ यक्षो सिद्ध सौ जुए तजीने गर्व. ॥ ॥

कुमार मरुतगणो वळी अचरजथी जोता, महान जोई रूपने भान बधुं खोता. ॥ ॥

अनेक मुख नेत्र ने बाहु तेम पग छे, दाढ भयंकर देखतां भीत थयुं जग छे. ॥ ॥

नभने अडनारुं वळी रंगतेजमय रूप, विशाळ नयने ओपतुं दिव्य विराट स्वरूप. ॥ ॥

व्यथा थाय छे देखतां, प्राण खरे गभराय, धीरज खूटी जाय ने मननी शांति हराय. ॥ ॥

प्रलयकार अंगारशुं जोई उग्र स्वरूप, ज्ञाअव्यवस्था ना रहे, प्रसन्न हो जगभूप. ॥ ॥

धृतराष्ट्रतणा पुत्र सौ कैं राजानी साथ, भीष्म द्रोण के कर्ण आ, वीर अमारा लाख. ॥ ॥

घोर तमारा वदनमां सर्वे प्रवेशे छे, चोंटे दांते, कैंकना मस्तक तूटे छे. ॥ ॥

नदी हजारो जाय छे सागरमाहीं जेम; लाखो लोको पेसता वदन तमारे तेम. ॥ ॥

पतंगियुं दीवे पडे मरवा माटे जेम, लाखो लोको पेसता वदन तमारे तेम. ॥ ॥

जीभ तमे चाटो गळी जलदमुखे सौ लोक, उग्र प्रभाथी तेजथी भरी रह्या छे लोक. ॥ ३० ॥

उग्र रूपना कोण छो देव, कहो मुजने, मूळ रूप धारो, पडे समज कैं न मुजने. ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
काळ लोकनो हुं थयो नाशकाज तैयार, नहीं होय तुं तोय आ वीर बधा मरनार. ॥ ॥

तेथी ऊभो था, लडी, राज्य करी, यश ले, निमित्त था तुं तो हवे, वीर हण्या छे में. ॥ ॥

(तेथी ऊभो था, लडी, राज्य करी, यश ले, निमित्त था तुं तो हवे, वीर हण्या में. ॥ ॥)
द्रोण भीष्म ने कर्ण ने जयद्रथ वीर हजार, हणेल में तुं हण हवे, चिंता कर न लगार. ॥ ॥

युद्ध करी ले भय तजी, विजय थशे तारो, शत्रुने तुं मारशे, विजय थशे तारो. ॥ ॥

वचनो आवा सांभळी, वंदन खूब करी, गद् गद् स्वरथी बोलियो अर्जुन प्रेम धरी. ॥ ३५ ॥

अर्जुन कहे छे:
हरखाये सौ लोक ने कीर्ति तमारी गाय, राक्षस नासे भयथकी, सिद्ध नमे ने गाय. ॥ ॥

केम नए ना ते बधा, सौना आदि तमे, अनंत विश्वाधार छो, अक्षर परम तमे. ॥ ॥

मूळ सर्वना छो तमे, छो जगत आधार, परमधाम सर्वज्ञ छो सौना सर्जनहार. ॥ ॥

(मूळ सर्वना छो तमे, छो जगतना आधार, परमधाम सर्वज्ञ छो सौना सर्जनहार. ॥ ॥)
पुराण पुरुष छो तमे, वळी सौना ज्ञाता छो, ज्ञेयरूप छो, सर्व ने सर्वथकी पर छो. ॥ ॥

(पुराण पुरुष तमे, वळी सौना ज्ञाता छो, ज्ञेयरूप छो, सर्व ने सर्वथकी पर छो. ॥ ॥)
यम, अग्नि ने वायु ने वरुण चंद्र तमे, ब्रह्मा, ब्रह्माना पिता, अनंत रूप तमे. ॥ ॥

व्यापक विश्वमहीं वळी विश्वथकी पर छो, नमुं हजारोवार ने नमन फरी पण हो. ॥ ॥

आगळ पाछळथी नमुं, चारे तरफ नमुं, अखूट बलभंडार हे, वारंवार नमुं. ॥ ॥

अनंतवीर्य, तमे सदा सौमां व्यापक छो, सर्वरूप छो हे प्रभो, जीवनदायक छो. ॥ ४० ॥

मित्र मानतां में कह्यां हशे वचन कपरां, प्रेम तेम अज्ञानथी वचन कह्यां कपरां. ॥ ॥

कृष्ण, सखा, यादव हशे एम कहेलुं में, महिमाने जण्याविना कह्युं भूलथी के; ॥ ॥

बीजानी सामे वळी एक हशो त्यारे, रमतां, सूतां, बेसतां, के भोजनकाळे; ॥ ॥

वारंवार कह्युं हशे तेम वळी अपमान, ते सौ माफ करो मने, मागुं छुं वरदान. ॥ ॥

जडचेतनना छो पिता, पूज्य वळी गुरु छो, तमारा समो अन्य ना श्रेष्ठ कोण छे तो? ॥ ॥

पूज्य देव तेथी नमुं काय नमावी हुं, प्रार्थु वारंवार आ शीश नमावी हुं. ॥ ॥

क्षमा करे सुतने पिता, मित्र मित्रने जेम, माफ करे प्रियने प्रिय, माफ करी दो तेम. ॥ ॥

अपूर्व जोई रूप आ व्यथा तेम भय थाय, देवरूपने तो धरो, भय आ मारो जाय. ॥ ॥

दैवी रूप धरो हवे, हे देवेश, तमे, प्रसन्न थाओ विश्वना हे आधार तमे. ॥ ॥

गदा मुकुट ने चक्रने धारी प्रभु, प्रकटो, विराट रूप त्यजी दई चतुर्भुज प्रकटो. ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
प्रसन्न बनतां रूप आ तने बताव्युं में, कोईये तारा विना जोयुं नथी ज ते. ॥ ॥

श्रेष्ठ तेजमय आद्य ने अनंत मारुं रूप, आत्मयोगना बल थकी दिव्य बताव्युं रूप. ॥ ॥

वेद, दान ने यज्ञथी, तीरथ के तपथी, जोवाये ना रूप आ, ज्ञान अने जपथी. ॥ ॥

मूढभाव भय छोड तुं, निर्भयताने धार, दिव्य रूपने जो हवे, व्यथा हृदयनी टाळ. ॥ ॥

संजय कहे छे:
एम कही प्रभु[ए] धर्युं फरी दिव्य निजरूप, आश्वासन आप्युं वळी धरतां शांत स्वरूप. ॥ ५० ॥

अर्जुन कहे छे:
जो[ई] मानव रूप आ हवे तमारुं शांत, स्वस्थ थयो छुं ने वळी मुजने थ[ई] निरांत. ॥ ॥

(जो[ई] मानव रूप आ हवे तमारुं शांत, स्वस्थ थयो छुं ने वळी मुजने छेक निरांत. ॥ ॥)
श्री भगवान कहे छे:
जोवुं जे मुश्केल ते जोयुं तें मुज रूप, देवो पण झंखी रह्या जोवा मारुं रूप. ॥ ॥

जे रूपे जोयो मने तेम जु[ए] को॑ ना, वेद यज्ञ तप दानथी श्के निहाळी ना. ॥ ॥

भक्ति खूब ज होय तो आवुं दर्शन थाय, ज्ञान थाय मारुं अने भेद बधाये जाय. ॥ ॥

भक्त बने मारो ज जे, संगदोष छोडे, मुजने झंखे ते जगे तरे अने तारे. ॥ ॥

कर्म करे मुज काज जे, संगदोष छोडे, प्राप्त करे मुजने ज ते, बंधन सौ तोडे. ॥ ५५ ॥

अध्याय १२: भक्तियोग
अर्जुन कहे छे:
तम साकार प्रभुनी भक्ति को[ई] करे, ने को[ई] निराकार ब्रह्मने पूजे. ॥ ॥

(जोडाई तम साथ जे भक्ति भक्त करे, अविनाशी अव्यक्तनी भक्ति तेम करे. ॥ ॥)
ते बन्नेमां मानवो उत्तम योगी कोण? प्रश्न थाय मुजने, कहो उत्तम योगी कोण? ॥ १ ॥

(ते बन्नेमां मानवो उत्तम योगी कोण? प्रश्न थाय मुजने, हशे उत्तम योगी कोण? ॥ १ ॥)
श्री भगवान कहे छे:
मारामां मन जोडतां, श्रद्धा खूब करी, संधा[ई] मुज साथ जे मुजने सर्व धरी, ॥ ॥

करतां भक्ति मानजे उत्तम तुं तेने, उत्तम योगी मुजमहीं आसक्ति जेने. ॥ २ ॥

अविनाअशी अव्यक्त ने अचिंत्य ब्रह्म स्वरूप, सर्वव्यापक जे भजे स्थिर कुटस्थ स्वरूप, ॥ ॥

(अविनाअशी अव्यक्त ने अचिंत्य मारूं रूप, सर्वव्यापक जे भजे स्थिर कुटस्थ स्वरूप, ॥ ॥)
ने समबुद्धि धारी बने जे ईन्द्रियस्वामी, सौनुं हित करनार ते पण अंते जाय मने पामी. ॥ ॥

(समबुद्धि धारी बने जे ईन्द्रियस्वामी, सौनुं हित करनार ते जाय मने पामी. ॥ ॥)
निराकार ब्रह्म भज्ये क्लेश घणो थाये, देहवान अव्यक्तमां दुःख थकी जाये. ॥ ५ ॥

बधां कर्म अर्पी मने मत्पर जे जन थाय, अनन्य भावे जे भजे धरतां ध्यान सदाय; ॥ ॥

मृत्युलोकथी तेमनो करवामां उद्धार, विलंब ना हुं कदी करुं जेने मन हुं सार. ॥ ॥

मारामां मन राख ने बुद्धि मुजमां धार, प्राप्त करीश मने पछी, शंका कर न लगार. ॥ ॥

मारामां जो चित्तने स्थिर करी न शकाय, अभ्यासतणा योगथी कर तो यत्न सदाय. ॥ ॥

अभ्यास थकी जो मने प्राप्त करी न शके, मारे माटे कर्म तो कर ते योग्य थशे. ॥ ॥

(अभ्यास थकी जो मने प्राप्त करी न शके, मारे माटे कर्म तो कर ते योग्य हशे. ॥ ॥)
मुज माटे कर्मो करी सिद्धि मेळवशे, मारे माटे कर्म कर तो ते योग्य थशे. ॥ १० ॥

जो ते ना ज करी शके, शरण ल[ई] मारुं, सर्व कर्मफळ त्याग तुं, तो य थशे सारुं. ॥ ॥

ज्ञान श्रेष्ठ अभ्यासथी मंगलकारक छे, ध्यान वधे छे ज्ञानथी एम कहेलुं छे. ॥ ॥

ध्यान थकी छे कर्मना फलनो त्याग महान, शांति मळे छे त्यागथी एम सदाये जाण. ॥ ॥

सर्व जीव पर मित्रता, दया प्रेम जेने, ममता मद ने वेरने दूर कर्या जेणे. ॥ ॥

समान सुख ने दुःखमां, क्षमाशील छे जे, संतोषी ने संयमी योगी तेम ज जे. ॥ ॥

मन बुद्धि अर्पण करी मने भजे छे जे, दृढ निश्चयथी, ते मने भक्त खरे प्रिय छे. ॥ ॥

(मन बुद्धि अर्पण करी मने भजे छे जे, दृढ निश्चयथी, छे मने भक्त खरे प्रिय ते. ॥ ॥)
दुभवे को[ई]ने नहीं, को[ई]थी न दुभाय, हर्ष शोक भयने तज्यां; प्रिय ते भक्त गणाय. ॥ १५ ॥

व्यथा तेम तृष्णा नथी, दक्ष शुद्ध छे जे, उदासीन संसारथी, प्रिय छे मुजने ते. ॥ ॥

हर्ष शोक आशा अने वेर करे ना जे, मोहे ना शुभ अशुभथी, प्रिय छे मुजने ते. ॥ ॥

मान वळी अपमान हो, शत्रु मित्र के होय, करे खूब गुणगान के निंदा छोने को॑य. ॥ ॥

तुष्ट रहे प्रारब्धथी, सुखदुःखे न डगे, संग तजे, समता धरे, ना बंधाय जगे. ॥ ॥

उपाधि ना जेने वळी घरमां ना ममता, स्थिरबुद्धि जे भक्त ते खूब मने गमता. ॥ ॥

धर्मतणुं अमृत आ श्रद्धापूर्वक जे, पी[ए] भक्तजनो मने खूब गमे छे ते. ॥ ॥

मारुं शरण ल[ई] सदा भक्त भजे छे जे, धर्मसारने समजतां, प्रिय चे मुजने ते. ॥ २० ॥

अध्याय १३: क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग
श्री भगवान कहे छे:
आ शरीर अर्जुन हे, क्षेत्र एम कहेवाय, जे जाणी ले तेहने ते क्षेत्रज्ञ गणाय. ॥ ॥

सर्व सरीरोमां मने क्षेत्रज्ञ खरे जाण, ज्ञान क्षेत्रक्षेत्रज्ञनुं ज्ञान सत्य ते मान. ॥ ॥

क्षेत्र तेम क्षेत्रज्ञ शुं, प्रभाव तेनो शुं, विकार तेना, ते बधुं कहुं टूंकमां हुं. ॥ ॥

विविध छंदमां आ कह्युं ज्ञान कैंक ऋषि[ए], ब्रह्मसूत्रनां पदमहीं तेने गायुं छे. ॥ ॥

महाभूत बुद्धि वळी अव्यक्त अहंकार, दश ईन्द्रियो मन अने पांच विषय विस्तार. ॥ ॥

ईच्छा सुख ने दुःख ने द्वेष चेतना तेम, द्युति संघात कहेल छे क्षेत्र विकारी एम. ॥ ५-६ ॥

मानी ना बनवुं वळी दंभ दर्प तजवां, दया राखवी, जीवने को॑दी ना हणवां. ॥ ॥

बुरुं करे को[ई] कदी तोय क्षमा करवी, सरल हृदय ने प्रेमथी वात सदा करवी. ॥ ॥

पूज्य गुरुने मानवा, स्वच्छ सदा रे॑वुं, चंचळताने छोडवी, मन जीती लेवुं. ॥ ॥

ईन्द्रियोना स्वादमां सुख ना कदी जोवुं, काम क्रोध अभिमानने मूकी मन धोवुं. ॥ ॥

जन्म थाय ने मरण ने रोग वळी थाये, घडपण आवे एम आ जीवन तो जाये. ॥ ॥

(जन्म थाय छे मरण ने रोग वळी थाये, घडपण आवे एम आ जीवन तो जाये. ॥ ॥)

एम दुःख दोषो बधा जीवनना जोवा, वैराग्य तणा लेपथी विकार सौ धोवा. ॥ ॥

स्त्री घर संताने नहीं ममता रति करवी, सरा नरसा समयमां धीरजने धरवी. ॥ ॥

अनन्य भाव करी सदा मुज भक्ति करवी, जनसमूहनी प्रीत ना स्वप्ने पण करवी. ॥ १० ॥

शांत स्थळे रे॑वुं, वळी करवो त्यां अभ्यास, ज्ञान मेळवी पामवा ईश्वरने तो खास. ॥ ॥

(शांत स्थळे रे॑वुं, वळी करवो त्यां अभ्यास, ज्ञान मेळवी पामवा ईश्वरने अभ्यास. ॥ ॥)
जीवननुं धन मानतां मेळववो मुजने, आ सौ ज्ञान-तणां कह्यां लक्षण में तुजने. ॥ ॥

ते ज जाणवा जोग छे जेथी अमर थवाय, अनादी ते परब्रह्मने सत्यासत्य गणाय. ॥ ॥

(ते ज जाणवा जोग छे जेथी अमर थवाय, अनादी ते परब्रह्मना सत्यासत्य गणाय. ॥ ॥)
ते ईश्वरने जाणजे, जे व्यापक सघळे, बधे हाथ पग आंख छे, शिर जेनां सघळे. ॥ ॥

गुणप्रकाशक तेम छे ईन्द्रियथी पर ते, धारणकर्ता सर्वना अनासक्त पण छे. ॥ ॥

(गुणप्रकाशक तेम छे ईन्द्रियथी पर ते, धारण करता सर्वना अनासक्त पण छे. ॥ ॥)
चराचर बधा जीवनी बहार अंदर छे, सुक्ष्म खूब छे, एटले अगम्य ते प्रभु छे. ॥ ॥

दूर रह्या ते तोय छे हृदये खूब ज पास, सौने सरजी पाळता, करता सौनो नाश. ॥ १५ ॥

समग्र जीवोमां रह्या विभक्त जेवा ते, पोषक सौना ज्ञेय ने नाशक सर्जक छे. ॥ ॥

प्रकाशनाय प्रकाश ते, अंधकारथी दूर, हृदयमां रह्या सर्वना, ज्ञान प्रेमना पूर. ॥ ॥

ज्ञान, ज्ञेय ने क्षेत्रने कह्युं टुंकमां में, भक्त भाव मुज मेळवे ज्ञान मेळवी ते. ॥ ॥

प्रकृति पुरुष अनादि छे एम खरे तुं जाण, विकार ने गुण उपज्या प्रकृतिमांथी मान. ॥ ॥

कारण तेम ज कार्यने छे प्रकृति करनार, पुरुष सुख दुःखना भोगो भोगवनार. ॥ २० ॥

प्रकृतिना गुणनो पुरुष जो थाये भोग, तेथी तेने थाय छे जन्ममरणनो रोग. ॥ ॥

(प्रकृतिना गुणनो करे पुरुष सदाये भोग, तेथी तेने थाय छे जन्ममरणनो रोग. ॥ ॥)
साक्षी पालक सर्वना महेश्वर कह्या ते, परमात्मा उत्तम वळी आ शरीरमां छे. ॥ ॥

परम पुरुष ते तो सदा देहे वास करे, दृष्टा मंतारूप ते सौमां वास करे. ॥ ॥

पुरुष तेम गुण साथ जे प्रकृतिने जाणे, को[ई] स्थितिमां ते नहीं फरी जन्म पामे. ॥ ॥

को[ई] प्रभुने ध्यानमां हृदये देखे छे, को[ई] ज्ञानथकी करी कर्मे पेखे छे. ॥ ॥

बीजा पासे सांभळी प्रभुने भजता जे, तरी जाय छे मोतने सुणनाराये ते. ॥ २५ ॥

जड ने चेतन जन्मतुं जे कैं पण देखाय, ते प्रकृति ने पुरुषना समागम थकी थाय. ॥ ॥

समानरूपे सर्वमां वसी रह्या प्रभु ते, तेने जे जोता सदा जोता साचुं ते. ॥ ॥

विनाशी बधी वस्तुमां अविनाशी प्रभु ते, तेने जे जोता सदा जोता साचुं ते. ॥ २७ ॥

आत्मा जेवा अन्यने ते न कदी मारे, विनाशी जगे जे सदा प्रभुने भाळे. ॥ ॥

प्रकृति कर्म करे बधां, आत्मा कैं न करे, एम जाणता जाणता साचुं, ते ज तरे. ॥ ॥

भिन्न जीव प्रभुमां रह्या ते प्रभुथी थाये, समजे एवुं तेमने प्रभु प्राप्ति थाये. ॥ ३० ॥

परमात्मा अविनाशी ने अनादि निर्गुण आ, कैं न करे देहे रही के लेपाये ना. ॥ ॥

व्यापक तोये सूक्ष्म, ना लिप्त थाय आकाश, आत्मा तेम ज अंगमां ना लेपाये खास. ॥ ॥

सूर्य जेम एक ज छतां बधे प्रकाश करे, आत्मा तेम ज देहमां बधे प्रकाश धरे. ॥ ॥

क्षेत्र तेम क्षेत्रज्ञ ने जीव प्रकृति ज्ञान, मोक्ष वळी जे जाणता, ते थता कल्याण. ॥ ३४ ॥

(क्षेत्र तेम क्षेत्रज्ञ ने जीव प्रकृति ज्ञान, मोक्ष वळी जे जाणता, ते करता कल्याण. ॥ ३४ ॥)

अध्याय १४: गुणत्रयविभाग योग
श्री भगवान कहे छे:
फरीथी कहुं छुं तने ज्ञान तणुं ये ज्ञान, जेने जाणी मुनिवरो पाम्या छे कल्याण. ॥ ॥

पामीने आ ज्ञानने जे मुजने मळतां, ते कल्पे ना जन्मता, प्रलये ना मरता. ॥ ॥

प्रकृति मारी योनि छे, तेमां प्राण धरुं, तेथी विश्व विराट आ जन्मे छे सघळुं. ॥ ॥

भिन्न योनिमां जीव जे जगमां जन्म धरे, पिता तेमनो गण मने, प्रकृति मात खरे. ॥ ॥

सत्व रज अने तम त्रणे प्रकृतिना गुण छे, शरीरमां लपटावता माणसने गुण ते. ॥ ५ ॥

सत्वगुण खरे शुद्ध छे, रूप तेजनुं छे, सुखनी तेमज ज्ञाननी साथे बांधे छे. ॥ ॥

रजोगुण उठे रागथी, तृष्णाथी ते थाय, कर्ममहीं मानव सदा तेनाथी बंधाय. ॥ ॥

अज्ञान थकी ऊपजे वळी तमो-गुण तो, प्रमाद आळस ऊंघथी बांधे छे ते तो. ॥ ॥

सुख आपे छे सत्व गुण, रज कर्मे दोरे, तम तो ज्ञान हरे, भरे आळसने जोरे. ॥ ॥

रज ने तम ने ढांकता वधे सत्वगुण आ, रजोगुण वधे ने कदी वधे तमोगुण आ. ॥ १० ॥

रोमरोममां अंगमां प्रकाशज्ञान छवाय, सत्वगुण वध्यो तो खरे, जोतां एम गणाय. ॥ ॥

लोभ प्रवृत्ति थाय ने तृष्णा वधती जाय, रजोगुण वध्ये काबु ना ईन्द्रियोनो थाय. ॥ ॥

विवेक तुटे, मोह ने प्रमाद आळस थाय, तमोगुण वधे ते समे लक्षण आम जणाय. ॥ ॥

सत्वगुण महीं मोत जो को[ई] जनजुं थाय, तो ते उत्तम लोकमां शुद्ध लोकमां जाय. ॥ ॥

रजोगुण महीं जो मरे, कर्मीजनमां जाय, मूढयोनिमां जाय जो मोत तम महीं थाय. ॥ १५ ॥

सत्कर्म तणुं सात्विक तेमज निर्मल फल साचे ज मळे;
रजनुं फल छे दुःख, तेम तमनुं फल छे अज्ञान खरे. ॥ ॥

सत्वगुण थकी ज्ञान ने लोभ रज थकी थाय, मोह तेम अज्ञान ने प्रमाद तमथी थाय. ॥ ॥

सत्विक गति उत्तम लभे, राजस मध्यमने, तमोगुणी लोको लभे सदा अधम गतीने. ॥ ॥

कर्मतणो कर्ता नथी गुणो विना को[ई], आत्मा गुणथी पर सदा, समजे ए को[ई], ॥ ॥

त्यारे ते मुज भावने प्राप्त थ[ई] जाये, निर्विकार बनतां मने प्राप्त थ[ई] जाये. ॥ ॥

आ त्रण गुणने जीतीने जे तेथी पर थाय, जन्मजराथी ते छूटी अमृतरसमां न्हाय. ॥ २० ॥

(आ त्रण गुणने जीततां जे तेथी पर थाय, जन्मजराथी ते छूटी अमृतरसमां न्हाय. ॥ २० ॥)
अर्जुन कहे छे:
आ त्रण गुणने जीततां जे तेथी पर थाय, केवा लक्षणथी कहो तेनी ओळख थाय. ॥ ॥

(आ त्रण गुणने जीततां जे तेथी पर थाय, केवा लक्षणथी कहो तेनी ओळख थाय. ॥ ॥)
श्री भगवान कहे छे:
मोहथी चळे ते नहीं, कर्मे ना लेपाय, द्वेष करे ना कर्म के शांतिने ना च्[हा]य. ॥ ॥

उदासीन जेवो रहे, गुणथी चलित न थाय, गुणो वर्तता गुणमहीं समजी चलित न थाय. ॥ ॥

सुख ने दुःखमहीं रहे शांत चित्त जेनुं, माटी सोनुं पत्थरे सरखुं मन तेनुं. ॥ ॥

को[ई] नींदे के करे कोई भले वखाण, मान करे, कोई करे छो ने के अपमान. ॥ ॥

बधी दशामां ते रहे शांत प्रसन्न समान, सरखा शत्रु मित्र छे, गुणातीत ते जाण. ॥ २५ ॥

खूब प्रेमभक्ति करे मारे माटे जे, गुणने जीती प्रभुसमो बनी जाय छे ते. ॥ ॥

अमर विनश्वर ब्रह्मनी प्रतिष्ठा मने जाण, सुख ने शाश्वत धर्मनो आधार मने मान. ॥ २३ ॥

अध्याय १५: पुरुषोत्तमयोग
श्री भगवान कहे छे:
अविनाशी आ जगतने कह्यो पीपळो छे, तेनो जाणे सार जे ज्ञानी साचो ते. ॥ ॥

गुणोथी वधी, विषयना मृदु पत्रोवाळी, शाखा तेनी उपर ने नीचे छे सारी. ॥ ॥

मनुष्यलोकमां कर्मथी बांधनार छे ते, नीचे शाखा, उपर छे मूळ वृक्षनुं ए. ॥ ॥

स्वरूप तेनुं स्[हे]जमां समजी ना ज शकाय, आदि अंत संसारनां समजी ना ज शकाय. ॥ ॥

लोको पाछा आवता कदी ज्यांथी ना, ते उत्तमपद पामवुं जन्म धरीने आअ. ॥ ॥

(ज्यांथी पाछा आवता ज्ञानी लोको ना, ते उत्तमपद पामवुं जन्म धरीने आअ. ॥ ॥)
जेनाथी आ जगतनी प्रवृत्ति चाले, ते परमात्मा पामवा जगने जे पाळे; ॥ ॥

दृढ आ द्रुम संसारनुं एम विचारी जे, अनासक्तिना शस्त्रथी छेदे बुधजन ते. ॥ ॥

मान मोह आसक्तिना दोष नथी जेने, आत्माग़्यानमां मग्न छे, काम नथी जेने;
सुख ने दुःख छे सम बधां द्वंदथकी पर छे, तेवा ज्ञानी पामता अविनशी पदने. ॥ ५ ॥

(सुख ने दुःखसमां बधां द्वंदथकी पर छे, तेवा ज्ञानी पामता अविनशी पदने. ॥ ५ ॥)
अग्नि सूरज चंद्र ना जेने तेज करे, जन्ममरणथी मुक्त ते मारुं धाम खरे. ॥ ॥

(अग्नि सूरज चंद्र ना जेने तेज धरे, जन्ममरणथी मुक्त ते मारुं धाम खरे. ॥ ॥)
जीव अंश मारो थई शरीरमां वसतो, ईन्द्रियो ने मनतणुं आकर्षण करतो. ॥ ॥

सुवास कोई फूलनी पवन लईने जाय, तेम जीव आ अंगथी मृत्यु समये जाय. ॥ ॥

आंख कान ने नाक ने जीभ त्वचा मनने, साधन करतां भोगवे जीव विषय रसने. ॥ ॥

जीव देहथी जाय छे, देहे भोग करे, मूढ जु[ए] एन नहीं, दर्शन संत करे. ॥ १० ॥

योगी यत्न करी जुए अंतरमां तेने, यत्न कर्ये पण ना जुए चंचळजन एने. ॥ ॥

अग्नि सूरज चंद्रमां जे कैं तेज जणाय, तेज ते बधुं में धर्युं, मारुं एम गणाय. ॥ ॥

धारुं छुं हुं जगतने पृथ्वी ना रूपमां, पोषुं छुं ने औषधि ढळी चंद्ररसमां. ॥ ॥

जठराग्नि बनतां रह्यो शरीरमांये हुं, चार जातना अन्नने हुं ज पचावुं छुं. ॥ ॥

सौना हैये छुं रह्यो जीवनप्राण थई, ज्ञान, ज्ञाननुं मूळ छुं, साची वात कही. ॥ ॥

संशयनाशक ज्ञान ने स्मृतिनो दाता हुं, वेदांत ने वेदनो जाणनार पण छुं. ॥ १५ ॥

आत्मा तो अविनाश छे, छे शरीरनो नाश, क्षर ने अक्षर वस्तुनो एम विश्वमां वास. ॥ ॥

परमात्मा बीजा वळी एथी उत्तम छे, जे व्यापक जगमां थया, ईश्वर साचे ते. ॥ ॥

क्षर अक्षरथी श्रेष्ठ हुं, एथी अर्जुन हे, कहे वेद ने जगतमां पुरुशोत्तम मुजए. ॥ ॥

मए ज पुरुषोत्तमरूपे जाणे ज्ञानी जे, भजे सर्वभावी मने सर्वज्ञ खरे ते. ॥ ॥

खूब गूढमां गूढ आ शास्त्र कह्युं छे में, धन्य तेम ज्ञानी बने आने जणे ते. ॥ २० ॥

अध्याय १६: दैवासुरसंपदविभागयोग
दरवुं कोईथी नहीं, थवुं सदा शुरवीर, खेल करी, कसरत करी, करवुं सरस शरीर. ॥ ॥

प्रभुना बाळक छे बधा एम सदा समजी, प्रभुने जोवा सर्वमां, भेद बधाय तजी. ॥ ॥

साप, सिंह ने डाकुथी डरवुं ना कदिकाळ, रक्षक छे प्रभु सर्वना, डरवुं ना कदिकाळ. ॥ ॥

चोरी तेमज जूठ ने निंदाथी डरवुं, बाकी कायरता तजी संसारे फरवुं. ॥ ॥

धर्मनीतिथी चालवुं प्रभुथी करवी प्रीत, डरवुं ईश्वर एकथी, थई जाय तो जीत. ॥ ॥

वस्त्र जेम धोवाय छे धोवुं मन तेवुं, दुर्गुण तेमज द्वेषने स्थान ज ना देवुं. ॥ ॥

ज्ञान पामवुं ते बधुं, धरवुं खूबज ध्यान, उतारवुं जीवनमहीं उत्तम एवुं ज्ञान. ॥ ॥

मन हंमेशां मारवुं, बनतुं करवुं दान, अनाथ दुःखी दीनने अन्नवस्त्रनुं दान. ॥ ॥

धनथी बीजी शक्तिथी करवां सौना काम, थवुं कदी स्वार्थी नहीं भजवा आतमराम. ॥ ॥

मन वाणी ने देहनो संयम पण करवो, पण अभिमान न राखवुं, नम्र भाव धरवो. ॥ ॥

हिंसा करवी ना कदी, सत्य वळी वदवुं, झेर क्रोधने जाणवुं, वेर वळी तजवुं. ॥ ॥

शांत चित्तथी बोलवुं, वसवुं आ जगमां, दया दीन पर लाववी, +मधुर थवुं दृगमां. ॥ ॥

खोटां कामोमां सदा लज्जाने धरवी, लोलुपता ना राखवी, चंचळता हरवी. ॥ ॥

तेजस्वी बनवुं, वळी क्षमा सदा करवी, द्रोह न करवो ने सदा धीरजनी धरवी. ॥ ॥

अहंकार ना राखवो, करवुं शुद्ध शरीर, दैवी गुणवाळा तणा गुण आ, अर्जुन वीर! ॥ ॥

दंभ दर्प अभिमान ने जेओ करता क्रोध, कठोर ने जे अज्ञ छे, न करे प्रभुनी शोध. ॥ ॥

दुर्गुणवाळा ते कह्या राक्षस जेवा लोक, सुख ना पमे ते कदी करे सदाये शोक. ॥ ॥

तेथी दुर्गुण छोडवा ने गुणियल बनवुं, दैवी गुणवाळाअ बनी जीवनने तरवुं. ॥ ॥

सद् गुणथी शांति मळे, टळी जायछे दुःख, दुर्गुणथी तो ना कदी शमे शांतिनी भूख. ॥ ॥

सद् गुणथी तुं छे भर्यो, अर्जुन, ना कर शोक, सुखी थशे साचे हवे, क्लेश करीश न फोक. ॥ ५ ॥

दैवी तेमज आसुरी वृत्ति तो बे छे, दैवी विस्तारे कही आसुरी सुण हवे. ॥ ॥

शुं करवुं, शुं छोडवुं, तेने ना जाणे, सत्य शौच आचार ना पाळे कदी काळे. ॥ ॥

असत्य ने आधारथी रहित जगत छे आ, परस्पर थयुं भोगमय, प्रभु तेमां छे ना. ॥ ॥

आवा क्षुद्र विचारथी खोटां कर्म करे, मंदबुद्धिना लोक आ जगनू नाश करे. ॥ ॥

तृष्णा तेमज दंभ ने मानमदे भरिया, मोह थकी घेरायेला मानव ते मरिया. ॥ ॥

खोटी वातोने सदा पकडी ते राखे, अशुद्ध व्रतने आचरे, असत्यने भाखे. ॥ १० ॥

अपार चिंता प्रयलना काळ लगी करता, भोग भोगवो जगतमां ए शिक्षा धरता. ॥ ॥

अधर्मथी धन मेळवे करे भोग ने शोक, आशा तृष्णाथी भर्या, कामी क्रोधी लोक. ॥ ॥

द्रव्य आटलुं मेळव्युं, हजीय मेळववुं, आ ईच्छा पूरी थई, हजी काम करवुं. ॥ ॥

(द्रव्य आटलुं मेळव्युं, हजीय मेळवुं, आ ईच्छा पूरी थई, हजी काम करवुं. ॥ ॥)
आ शत्रुने में हण्यो, बीजाने हणवो, ईश्वर, भोगी, सिद्ध हुं, बली, सुखी वरवो. ॥ ॥

मारा जेवो कोण छे, धनी मान्य छुं हुं, करुं यज्ञ ने दान ने भोग भोगवुं हुं. ॥ ॥

एवा दुष्ट विचारथी मोहे डूब्या जे, भ्रमित चित्तना मानवी पडे नरकमां ते. ॥ ॥

भोगविलासे रत वळी मानमदे भरिया, ममता, मोटाई अने मोहमहीं मरिया. ॥ ॥

विविध जातना यज्ञ ने अनुष्ठान कर्ता, दंभ तेम पाखंडथी विधिने ना करता. ॥ ॥

अहंकार, बळ, दर्प ने कामक्रोधवाळा, द्वेष करे मारो सदा निंदक ते मारा. ॥ ॥

अधम क्रूर ते दुष्टने दुःखी सदा राखुं, घोर आसुरी योनिमां ते सौने नाखुं. ॥ ॥

लभी आसुरी योनिने अनेक जन्मे ते, मए मेळवेन कदी, लभे अधम गतिने. ॥ २० ॥

काम, क्रोध, ने लोभ छे द्वार नरकनां त्रण, नाश करी दे आत्मनो, तजी दे लई पण. ॥ ॥

अंधारा ए द्वारथी मुक्त थाय जे जन, ते ज करे कल्याण ने पामे छे गति धन्य. ॥ ॥

शास्त्रविधिने छोडीने मनस्वीपणे जे, कर्म करे, ते ना लभे सिद्धि मुक्ति सुख के. ॥ ॥

(शास्त्रोनी विधि छोडतां मनस्वीपणे जे, कर्म करे, ते ना लभे सिद्धि मुक्ति सुख के. ॥ ॥)
कर्ममहीं तो शास्त्रने प्रमाण तुं गणजे, शास्त्राज्ञा मानी सदा कर्म बधां करजे. ॥ २४ ॥

अध्याय १७: श्रद्धात्रयविभागयोग
अर्जुन कहे छे:
शास्त्रोनी विधिने मुकी श्रद्धाथी ज भजे, सात्विक, वृत्ति तेमनी, राजस तामस के? ॥ ॥

श्री भगवान कहे छे:
सौनी श्रद्धा सहज ते त्रण प्रकारनी होय, सात्विक, राजस, तामसी; सुण ते केवी होय. ॥ ॥

हैयुं जेवुं होय छे तेवी श्रद्धा होय, श्रद्धामय छे मानवी, श्रद्धा जेवी होय. ॥ ॥

सात्विक पूजे देवने, राजस यक्ष भजे, तमोगुणीजन प्रेतने प्राणी अन्य भजे. ॥ ॥

शास्त्रोथी उलटी करे घोर तपस्या जे, दंभी अभिमानी अने कामी क्रोधी जे. ॥ ॥

आत्मारूप रह्या मने ते पीडा करता, निश्चय तेनो राक्षसी, फोगट श्रम करता. ॥ ५-६ ॥

त्रण प्रकारनो सर्वनो खोराक कह्यो छे, यज्ञ, तप अने दाननो भेद बताव्यो छे. ॥ ॥

आयु वधे, आरोग्य हो, बल वधे वळी तेम, जेथी सुख लागे, बने अंतर टाढुं हेम; ॥ ॥

रसवाळुं ने मधुर ते सात्विक अन्न कह्युं, विद्वानोए तेहने उत्तम अन्न गण्युं. ॥ ॥

कडवुं तीखुं होय जे खाटुं ने खारुं, सूकुं ऊनुं खूब ते अन्न नहीं सारुं. ॥ ॥

दुःख शोक ने रोग ते अन्न सदाय करे; राजस तेने छे कह्युं, ते सुखशांति हरे. ॥ ॥

खाधेलुं रसहीन ने टाढुं खूब थयुं, तेमज वासी अन्न ते तामस अन्न कह्युं. ॥ ॥

एठुं तेम अपवित्र ने दुर्गंधीवाळुं, तामस जनने ते गमे, अन्न नहीं सारुं. ॥ ॥

फल ईच्छाने मूकीने विधिपूर्वक जे थाय, करवा खातर यज्ञ ते, सात्विक यज्ञ गणाय. ॥ ॥

(फलनी ईच्छाने मूकी विधिपूर्वक जे थाय, करवा खातर यज्ञ ते, सात्विक यज्ञ गणाय. ॥ ॥)
फलनी ईच्छा राखतां, दंभ पोषवा थाय, यशने माटे यज्ञ ते राजस यज्ञ गणाय. ॥ ॥

दक्षिणा ने मंत्र ने श्रद्धा जेमां ना, तामस यज्ञ गणाय ते विधिये जेमां ना. ॥ ॥

ज्ञानी ब्राह्मण देव ने गुरु पूजा करवी, पवित्रता ने सरलता अंतरमां धरवी. ॥ ॥

ब्रह्मचर्यने पाळवुं, हिंसा ना करवी, शरीरनुं तप ते कह्युं, निर्बलता हरवी. ॥ ॥

सत्य मधुर बोलवुं, जेथी मंगल थाय, ज्ञानपाठ करवो वळी, ते वाणीतप थाय. ॥ ॥

(सत्य ने मधुर बोलवुं, जेथी मंगल थाय, ज्ञानपाठ करवो वळी, ते वाणीतप थाय. ॥ ॥)
प्रसन्न मनने राखवुं, चिंता ना करवी, विकार मनना टाळवाअ, चंचळता हरवी. ॥ ॥

शांति राखवी, जातनो संयम पण करवो, मौन राखवुं, हृदयमां शुद्ध भाव भरवो. ॥ ॥

विचार उत्तम राखवा, भेद दूर करवो, मननुं आ तप छे कह्युं, भय सौनो हरवो. ॥ ॥

फल ईच्छाने मूकीने, श्रद्धा राखी थाय, सात्विक तप तो आ त्रणे उत्तम एम गणाय. ॥ ॥

(फलनी ईच्छाने मूकी, श्रद्धा राखी थाय, सात्विक तप तो आ त्रणे उत्तम एम गणाय. ॥ ॥)
मान बडाई काज जे बताववा ज कराय, पूजावा खातर वळी, ते राजस तप थाय. ॥ ॥

अज्ञान अने हठ थकी संकट सही कराय, तामस तप ते, जे अन्यनो नाश करवा थाय. ॥ ॥

(अज्ञान अने हठ थकी संकट सही शकाय, तामस तप ते, अन्यनो नाश करवा कराय. ॥ ॥)
देवा खातर दान जे कोईने देवाय, समय पात्र जोई सदा, ते सात्विक के॑वाय. ॥ २० ॥

फळ मेळववा दान जे बदलामां देवाय, उपकार गणी दान जे, ते राजस कहेवाय. ॥ ॥

पात्र समय संजोगने जोया विना कराय, अयोग्य ने जाहेर ते तामस दान गणाय. ॥ ॥

ॐ अने तत् सत् कह्यां ईश्वरनां त्रण नाम, एथी ॐ कही सदा कराय मंगल काम. ॥ ॥

वेद यज्ञा ब्राह्मण थया तेमांथी सघळा, यज्ञ दान थाये लई नाम ते सघळां. ॥ ॥

तत् शब्द कहीने वळी तजी दई तृष्णा, मुमुक्षुजनो दान ने तप उत्तम करता. ॥ २५ ॥

साधु तेम सद्भावमां प्रयोग सत् नो थाय, उत्तम कर्मोमां सदा प्रयोग सत् नो थाय. ॥ ॥

यज्ञ दान ने तपमहीं स्थिति ते सत् कहेवाय, ते माटेना कर्मेने सत् एम ज कहेवाय. ॥ ॥

श्रद्धा विना कराय जे कर्म यज्ञ तप दान, मंगल ते न करी शके, असत्य तेने मान. ॥ २८ ॥

अध्याय १८: मोक्षसन्यासयोग
अर्जुन कहे छे:
तत्व कहो सन्यास ने त्याग तणुं मुजने, कोने त्याग कहो वळी, सन्यास कहो कोने. ॥ ॥

(तत्व कहो सन्यास ने त्याग तणुं मुजने, कोने त्याग कहो वळी, सन्यास कहो ते. ॥ ॥)
श्री भगवान कहे छे:
कर्मोना जे त्याग छे ते सन्यास गणाय, कर्मतणा फल त्यागवां तेने त्याग कहेवाय. ॥ ॥

कोई के॑ छे कर्म छे खराब तो त्यागो, कोई के॑ तप य़ज्ञ ने दान ना ज त्यागो. ॥ ॥

ते संबंधी सांभळी मारो मत तुं ले, त्याग कह्यो त्रण जातनो, सुणी हवे तुं ले. ॥ ॥

यज्ञ दान तप कर्म तो को॑दी तजवां ना, यज्ञ दान तपथी बने पवित्र मानव हा! ॥ ५ ॥

अहंकार तृष्णा तजी आ कर्मो करवां, मत मारो में छे कह्यो, श्रेष्ठ कर्म करवां. ॥ ॥

नक्की कर्मोनो नहीं त्याग घटे करवो, त्याग करे को॑ मोहथी तो तामस ते गणवो. ॥ ॥

दुःखरूप सौ कर्म छे, दे शरीरने क्लेश, एम करेलो त्याग ते फल ना आपे लेश. ॥ ॥

(दुःखरूप सौ कर्म छे, दे शरीरने क्लेश, एम गणीने थाय ते फल ना आपे लेश. ॥ ॥)
राजस ते तो त्याग छे, जे चिंता भयथी थाय, कोई संकट आवतां, पडतां दुःख कराय. ॥ ॥

(राजस ते तो त्याग छे, चिंता भयथी थाय, कोई संकट आवतां, पडतां दुःख कराय. ॥ ॥)
तृष्णा मद त्यागी करे श्रेष्ठ कर्मने जे, ते प्रकारना त्यागने सात्विक के छे. ॥ ॥

सात्विक त्यागी प्रज्ञ ने संशयरहित सदाय, खराबने नींदे नहीं, सारामां न फसाय. ॥ १० ॥

बधां कर्म छोडी शके ना मानव को॑दी, त्यागी ते छे जेमणे फल दीधुं छोडी. ॥ ॥

फलाशा करे तेमने त्रिविध मळे फल तो, ते फल त्यागीने नथी, त्याग करे जो को॑. ॥ ॥

सर्व कर्मनी सिद्धिने माटे पांच कह्यां, कारण, ते सुणजे हवे, कारण पांच कह्यां. ॥ ॥

अधिष्ठान, कर्ता अने साधन भिन्न कह्यां, क्रिया जुदी ने पांचमु दैव, प्रबल सघळां. ॥ ॥

काया वाणी मनथकी जे पण कर्म कराय, तेनां आ कारण कह्यां, सारु< माठुं कराय. ॥ १५ ॥

आथी आत्माने ज जे कर्ता माने छे, ते यथार्थ ज्ञानी नथी, कर्ता माने जे. ॥ ॥

अहंभाव जेने नथी, बुद्धि ना भरमाय, आखा जगने ते हणे तो ये ना बंधाय. ॥ ॥

ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता थकी कर्म-प्रेरणा थाय, कारण कर्म कर्ता थकी कर्म-समुच्चय थाय. ॥ ॥

ज्ञान कर्म कर्ता वळी त्रण प्रकारना छे, गुण परमाणे ते कहुं, प्रेमे सांभळजे. ॥ ॥

जुदा जुदा जीवमां प्रभु तो एक ज छे. एकता जुए जे सदा, सात्विक ज्ञान ज ते. ॥ २० ॥

भेदभावने जे जुए सघळे संसारे, जीव गणे जुदा बधा, राजस ज्ञान ज ते. ॥ ॥

(भेदभावने जे जुए संसारमहीं ने, जीव गणे जुदा बधा, राजस ज्ञान ज ते. ॥ ॥)
एकमां ज डुबे छे जे, एकने ज वळी गणे, अंध भ्रांतनी जेम, ज्ञान तामस ते भणे. ॥ ॥

रागद्वेष अहंताने छोडी चोक्कस थाय जे, फलेच्छाना विना कर्म, कर्म सात्विक मान ते. ॥ ॥

अहंकार अने कोई ईच्छा साथ कराय जे, यत्न खूब करी कर्म, कर्म राजस मान ते. ॥ ॥

संजोग, नाश ने हिंसा, बलने न विचारतां, मोहथी थाय जे कर्म, कर्म तामस ते थतां. ॥ ॥

नम्र, निर्दोष, आनंदी धैर्य उत्साहथी भर्यो, लाभहानिमहीं शांत कर्ता सात्विक ते कह्यो. ॥ ॥

रागी हिंसक ने मेलो, हर्षशोकथकी भर्यो, डूबेलो विषयोमां ते कर्ता राजस छे कह्यो. ॥ ॥

प्रमादी, शोकवाळो ने कपटी जडताभर्यो, अज्ञानी, स्थिर ना जे ते कर्ता ताम्स चे कह्यू. ॥ ॥

बुद्धि ने धैर्यना पाड्या प्रकारो त्रण छे, कहुं ते तुजने पार्थ प्रेमथी सुणजे हवे. ॥ ॥

शुं करवुं शुं छोडवुं एने जाणे जे, बंध मोक्ष जाणे वळी बुद्धि सात्विक ते. ॥ ३० ॥

शुं करवुं शुं छोडवुं तेमज धर्म अधर्म, राजस बुद्धि तेहनो जाणे जाणे पूर्ण न मर्म. ॥ ॥

माने धर्म अधर्मने अज्ञानथकी जे, उलटुं समजे सर्वने, बुद्धि तामस ते. ॥ ॥

मन ने ईन्द्रिय प्राण सौ जेनाथी वश थाय, अडग धैर्य ते ते खरे सात्विक धैर्य गणाय. ॥ ॥

ईच्छा कोई राखतां जेथी धर्म कराय, ईच्छा शमतां जे शमे, राजस धैर्य गणाय. ॥ ॥

स्वप्न भीति ने शोक ने मद ने लाख उपाय, मूढ मूके जेथी न ते तामस धैर्य मनाय. ॥ ३५ ॥

त्रण प्रकारनुं जे सुख कह्युं ते सांभळ तुं, दुःख दूर करवा तने प्रेमे आज कहुं. ॥ ॥

पहेलां झेरसमुं अने अंते मीठुं जे, प्रसन्न मन अंतर करे, सात्विक सुख छे ते. ॥ ॥

ईन्द्रियोना स्वादथी पहेलां मीठुं जे, अंते झेर समान छे, राजस सुख छे ते. ॥ ॥

पहेलां ने अंतेय जे मनने मोह करे, प्रमाद आळस ऊंघ ते तामस सुख सौ छे. ॥ ॥

पृथ्वी तेम ज स्वर्गमां कोई एवुं ना, जे आ गुणथी मुक्त हो, कोई एवुं ना. ॥ ४० ॥

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यनां कर्म शूद्रनां तेम, स्वभावगुणथी छे कर्या समजी लेजे एम. ॥ ॥

संयम मन ईन्द्रियनो, तप तेमज करवुं, क्षमा राखवी, प्रभुमहीं श्रद्धाथी तरवुं. ॥ ॥

नम्र पवित्र बनी सदा श्रेष्ठ पामवुं ज्ञान, ब्राह्मणना ते कर्म छे मेळववुं विज्ञान. ॥ ॥

शूरवीर ने चपळ ने तेजस्वी बनवुं, धीरज धरवी युद्धथी पाछा ना फरवुं. ॥ ॥

दानी बनवुं, श्रेष्ठता भाव सदा सदा राखवो, ए क्षत्रियना कर्म छे, दयाभाव धरवो. ॥ ॥

वैश्यकर्म खेती अने गौ सेवा वेपार, सेवनां कर्मो बधां कर्म शूद्रना धार. ॥ ॥

पोतानां कर्मो करी सिद्धि मेळववी, प्रभु-अर्थे कर्मो करी सिद्धि मेळववी. ॥ ४५ ॥

जेणे जगने छे रच्युं, जेथी जग चाले, पूजी तेने कर्मथी सिद्धिमां म्हाले. ॥ ॥

खराब पोतानो भले धर्म होय तोये, बीजाना शुभ धर्मथी ते उत्तम होये. ॥ ॥

सदोष होय तोय ना सहज कर्म तजवुं, कर्म बधाये दोषथी व्याप्त थयां, गणवुं. ॥ ॥

आसक्ति तृष्णा तजी संयम तेम करी, सिद्धि उत्तम मेळवे त्यागथकी सघळी. ॥ ॥

सिद्धि तेमज ब्रह्मने जे रीते पामे, कहुं ते वळी ज्ञाननी निष्ठा जे पामे. ॥ ५० ॥

शुद्ध बुद्धिने मेळवी, संयम साधीने, विषय तजीने, राग ने द्वेष हणीने जे; ॥ ॥

वसे विजनमां जीततां काय मन वाणी, मिताहार करतां थई वैरागी ध्यानी. ॥ ॥

संग्रह बळ ने दर्प ने काम क्रोध अभिमान, तजी शांत बननारने प्रभुनी थाये जाण. ॥ ॥

ब्रह्मभूत ते ना कदी हर्षशोक करतो, समदृष्टि बनतां सदा मुज भक्ति लभतो. ॥ ॥

रहस्य मारुं भक्तिना बळथी पूर्ण जणाय, रहस्य जाणी छेवटे मुजथी एक बनाय. ॥ ५५ ॥

मारे शरणे आवतां कोई कर्म करे, मुज कृपाथकी तेमने उत्तम धाम मळे. ॥ ॥

मनथी कर्मो तुं मने अर्पी सघणां दे, मारामां मन राख ने ज्ञान मेळवी ले. ॥ ॥

मारी कृपाथकी बधां संकट तुं तरशे, ना सुणशे अभिमानथी तो तो नष्ट थशे. ॥ ॥

अहंकारथी ना कहे भले युद्ध करवा, स्वभाव तारो प्रेरशे पण तुजने लडवा. ॥ ॥

सहज कर्म वळग्युं तने तेथी जे तजवुं मोहथकी लागे तने, ते पडशे करवुं ॥ ६० ॥

ईश्वर सौना हृदयमां अर्जुन! वास करे, तेना बळथी कर्म सौ आ संसार करे. ॥ ॥

पूर्ण प्रेमथी शरण तुं तेनुं ज लई ले, देशे उत्तम स्थान ने परम शांति तो ते. ॥ ॥

ज्ञान गुह्यमां गुह्य आ तने कह्युं छे में, विचारी लई ते हवे कर करवुं होय ते. ॥ ॥

खूब गुप्त आ ज्ञानने फरी सांभळी ले, हितनी वात कहुं हवे, प्रिय तुं खूब मने. ॥ ॥

मनथी भज मुजने अने तनथी कर सेवा, कर्म मने अर्पण करी माणी ले मेवा. ॥ ॥

जगमां जोईने मने वंदन कर हररोज, मने पामशे सत्य तुं करतां मारी खोज. ॥ ॥

मन वाणीथी भक्त था मारो केवल तुं, शांति तेम सुख पामशे, सत्य कहुं छुं हुं. ॥ ॥

चिंता सघळी छोड ने मारुं शरणुं ले, पाप बधा टाळीश हुं, शोक तजी तुं दे. ॥ ॥

भक्त न मारो होय जे तपस्वी ना होय, नींदे मुजने, ना चहे सांभळवाने कोय; ॥ ॥

तेने में आपेल आ कहीश ना तुं ज्ञान, कहीश मारा भक्तने तो करशे ते कल्याण. ॥ ॥

गुह्य ज्ञान आ भक्तने जे कोई के॑शे, भक्ति मारी ते करी लभी नमे लेशे. ॥ ॥

तेनाथी मुजने नहीं प्रिय कोई हशे, प्रिय तेनाथी को नथी आ संसार विशे. ॥ ॥

धर्मतणो संवाद आ वांचे प्रेमे जे, ज्ञानयज्ञथी पूजशे मुजने साचे ते. ॥ ७० ॥

पवित्रता श्रद्धाथकी जे आने सुणशे, सुखी लोकमां ते जशे, मुक्त वळी बनशे. ॥ ॥

ध्यान दई तें सांभळ्युं आ अर्जुन सगळुं? अंधारूं अज्ञाननुं थयुं दूर सघळुं?
अर्जुन कहे छे:
तम कृपाथी मट्यो मोह ने मळ्युं ज्ञान, आज्ञा आपो ते करुं, संशय टळ्यो महान. ॥ ॥

(तमारी कृपाथी मट्यो मोह ने मळ्युं ज्ञान, आज्ञा आपो ते करुं, संशय टळ्यो महान. ॥ ॥)
संजय कहे छे:
कृष्ण अने अर्जुननो संवाद सुण्यो में, रोमांचित करनार ने अद्भूत एवो ते. ॥ ॥

योगेश्वर कृष्णे कह्यो आ संवाद खरे, व्यास कृपाथी सांभळ्यो आ संवाद खरे. ॥ ७५ ॥

याद करी संवाद ए अद्भूत अचरज थाय, याद करी संवाद ए आनंद खूब ज थाय. ॥ ॥

अर्जुन तेमज कृष्ण बे भेगा ज्यां थाये, त्यां धन जय नक्की रहे, वैभव ना माये. ॥ ॥

योगेश्वर ज्यां कृष्ण छे, पार्थ धनुर्धर ज्यां, सिद्धि, मुक्ति, शांति ने नीति रहे छे त्यां. ॥ ७८ ॥

– सरल गीता समाप्त –
उपसंहार
साबरमतीमहीं रही मंगल गुर्जर देश, पूर्ण कर्यो आ प्र्मथी गीतानो उपदेश.
अधिक मास वैशाख ने वद एकादश रोज, शनिवारे पूरी करी गीताजीनी मूज.
ओगणीसो त्रेपन सने बे हजार नवमां, पूर्न थई गीता खरे ज्ञाननाव भवमां.
(- श्री योगेश्वरजी)
समाप्त

– Chant Stotra in Other Languages –

Sarala Gita in Sanskrit – EnglishBengaliGujaratiKannadaMalayalamOdiaTeluguTamil

See Also  Essence Of Bhagavad Gita By Sri Yamunacharya In Malayalam